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सामान्यतोदृष्ट तथा अदृष्ट | अनुमान के आभास के संबंध में असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अनध्यवसित, कालात्ययापदिष्ट, अकिंचित्कर तथा प्रकरणसम इन सात हेत्वाभासों का वर्णन परि ३० से ४२ तक है । परि. ४३-४४ में आत्माश्रय, इतरेतराश्रय आदि तर्क के प्रकार तथा उन के दोषों का वर्णन हैं | परि. ४५ से ४८ तक छल तथा उस के तीन प्रकारों का - वाकूछल, सामान्यछल और उपचारछल का वर्णन है । परि. ४९ से ६९ तक जाति अर्थात झूठे दूषणों के चौबीस प्रकारों का वर्णन है । परि. ७० से ८५ तक निग्रहस्थान अर्थात बाद में पराजय होने के कारणों के बाईस प्रकारों का वर्णन है । परि. ८६ से ९८ तक वाद के प्रकारों तथा अंगों का वर्णन है । व्याख्यावाद, गोष्टीवाद तथा विवादवाद ये वाद के तीन प्रकार हैं । अथवा तात्त्विक, प्रातिभ, नियतार्थ एवं परार्थन ये वाद के चार प्रकार हैं । तथा सभापति, सभासद, वादी और प्रतिवादी ये वाद के चार अंग हैं । परि. ९९ से १०२ तक पत्र तथा उस के अंगों का वर्णन है । परि. १०३ से १२२ तक बाद और जल्प के न्याय दर्शन में कहे गये लक्षणों का खण्डन करके बाद और जल्प में अभेद स्थापित किया है । परि. १२३-१२४ में आगम तथा उस के आभास का वर्णन है । परि. १२५ से १२८ तक करण प्रमाण अर्थात नापतौल की पद्धतियों का वर्णन है । परि. १२९ में अन्य दर्शनों में वर्णित प्रमाणों का उपर्युक्त व्यवस्था में समावेश करने की रीति बतलाई है तथा परि. १३० में अन्तिम पुष्पिका है । ८. कुछ प्रमुख विशेषताएं-- आचार्य ने प्रमाण के विविध विषयों पर जो विचार व्यक्त किये हैं उन की अन्य जैन - जैनेतर आचार्यों के विचारों से तुलना करने का प्रयास हमने अन्तिम टिप्पणों में किया है । यहां इस तुलना से ज्ञात होनेवाली कुछ प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करते हैं ।
(अ) प्रमाण के लक्षण में अपूर्वार्थ या अनधिगतार्थ के ग्रहण जैसा कोई शब्द नही है |
(आ) प्रत्यक्ष प्रमाण के चार भेद किये हैं - इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष, स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ।
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