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________________ ११६ प्रमाप्रमेयम् [१.१२२प्रसाध्यत्वे उत्तरोत्तरैकैकप्रसाध्यत्वे इतरे पञ्च हेतुत्वेन द्रष्टव्या इति - तन्निरस्तम् । उक्तसकलहेतुमालाया असिद्धत्वात् । कथमिति चेत् प्रागुक्त प्रकारेण वादे तत्त्वज्ञानसंरक्षणादीनां सद्भावसमर्थनात् । यच्चान्यत् प्रत्यवातिष्टिपित् तत् सकलहेतुसमर्थनार्थ वादः तत्त्वज्ञानसंरक्षणरहितादिमान् अविजिगीषुविषयत्वात् तद्वदिति तदप्यसिद्धम् । तथा हि-वादो विजिगीषुविषयः सिद्धान्ताविरुद्धार्थविषयत्वात् स्वाभिप्रेतार्थव्यवस्थापनफलत्वात् विचारत्वात् पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात् निग्रहस्थानवत्त्वात् परिसमाप्तिमत्कथात्वात् जल्पवदिति । यत्किंचिद् वादे निषिध्यते जल्पे समर्थ्यते परैः तत्सर्वमेतैर्हेतुभिवादे समर्थनीयं जल्पे निषेधनीयम्। तथा जल्पो वीतरागविषयः सिद्धान्ताविरुद्धार्थविषयत्वात् स्वाभिप्रेतार्थव्यवस्थापनफलत्वात् विचारत्वात् पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात् निग्रहस्थान के रूप में समझने चाहियें-यह (सब कथन हमारे उपर्युक्त प्रमाणों से ) खण्डित हुआ क्यों कि उन की पूर्वोक्त हेतुओं की पूरी मालिका ही असिद्ध है। वह कैसे असिद्ध है इस प्रश्न का उत्तर है कि ( हमारे द्वारा) पहले बताये गये प्रकार से वाद में तत्त्वज्ञान का संरक्षण करना आदि सब बातों का अस्तित्व पाया जाता है इस का समर्थन होता है । नैयायिकों ने जो यह और कहा था कि वाद में तत्वज्ञान का संरक्षण करना आदि बातें नही होती क्यों के वह विजय की इच्छा से नहीं किया जाता-यह भी असिद्ध है। जैसे किवाद विजय की इच्छा से किया जाता है क्यों कि वह सिद्धान्त से अविरोधी विषय के बारे में होता है, अपना इष्ट तत्त्व सिद्ध करना उस का फल होता है, वह विचारविमर्श के रूप में होता है, पक्ष और प्रतिपक्ष स्वीकार कर के किया जाता है, निग्रहस्थानों से युक्त होता है, कथा की समाप्ति तक किया जाता है-इन सब बातों में वह जल्प के समान है। इस प्रकार प्रतिपक्षी (नैयायिक) वाद में जिन बातों का निषेध करते हैं (अभाव बतलाते हैं) तथा जल्प में उन बातों का समर्थन करते हैं उन सबका उपर्युक्त हेतुओं द्वारा वाद में समर्थन तथा जल्प में निषेध करना चाहिये। जैसे किजल्प वीतरागों द्वारा किया जाता है क्यों कि वह सिद्धान्त से अविरोधी विषय के बारे में होता है, अपने इष्ट तत्त्व को सिद्ध करना यह उस का फल होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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