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________________ -१.१२३] आगम ११७ वखात् परिसमाप्तिमत्कथात्वात् वादवदिति । एवं वादजल्पयोः सदृक्साधनदूषणत्वात् अविशेषेण वीतरागविजिगीषुविषयत्वाच्च संभाषण वादः संजल्पः विचारः कथा उपन्यास इत्यनान्तरम् । तथा हि गृहीत विपक्षं प्रति युक्त्या संभाष्यत इति संभाषणं, विप्रतिपन्नं प्रति युक्त्या स्वाभिप्रेतार्थवदनं वादः, तथा जल्पनं जल्पः, तेषां धात्वर्थप्रत्ययार्थयोः भेदाभावादभेद एव । तथा विचारणं विचारः, कथनं कथा, उपन्यसनम् उपन्यास इति च । इत्यनुमानप्रपञ्चः ॥ [१२३. आगमः] ___ आप्तवचनादिजनितपदार्थज्ञानम् आगमः ।यो यत्राभिज्ञत्वे सत्य वञ्चकः स तत्राप्तः। तद्वचनमपि ज्ञानहेतुत्वादागम एव । ततो जातं तत्त्वयाथात्म्यज्ञानं भावश्रुतम्। तत्वयाथात्म्यप्रति पादकं वचनं द्रव्यश्रुतम्। है, वह विचारविमर्श के रूप में किया जाता है, पक्ष और प्रतिपक्ष स्वीकार कर के किया जाता है, निग्रहस्थानों से युक्त होता है तथा कथा की समाप्ति तक किया जाता है-इन सब बातों में वह वाद के समान है। इस प्रकार वाद और जल्प दोनों में साधन और दषण समान हैं, दोनों समान रूप से वीतरागविषय तथा विजिगीषूविषय हैं (विजय की इच्छासे या उस के विना किये जाते हैं ), अतः वाद, संभाषण, संजल्प, विचार, कथा, उपन्यास ये सब एकार्थक शब्द हैं । जिससे विरुद्ध पक्ष लिया है उस से युक्तिपूर्वक बोलना यही संभाषण है, विरुद्ध पक्ष के वादी को युक्तिपूर्वक अपनी इष्ट बात बतलान यही वाद है, जल्पन (बोलना ) यही जल्प है, इन सब शब्दों में धातु कत अर्थ तथा प्रत्यय का अर्थ इन दोनों में कोई भेद नही है अतः उन शब्दों के अर्थ में भी कोई भेद नहीं है । इसी प्रकार विचारण, विचार, कथन, कथा,, उपन्यसन, उपन्यास ये भी एकार्थक शब्द हैं । इस प्रकार अनुमान का विस्तृ कथन पूर्ण हुआ। आगम आप्त के वचन आदि से उत्पन्न हुए पदार्थों के ज्ञान को आगम कहते हैं । जो जिस विषय को जानता हो तथा अवञ्चक हो (- धोखा न देता हो- सत्य बोलता हो) वह उस विषय के लिए आप्त होता है। आप्त के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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