SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ प्रमाप्रमेयम् [१.१२१सिद्धाः। पक्षे सर्वत्र प्रवर्तमानत्वात् न भागासिद्धाः। पक्षे निश्चितत्वात् नाशातासिद्धाः न संदिग्धासिद्धाश्च । विपरीते निश्चिताविनाभावाभावात् न विरुद्धाः। विपक्षे वृत्तिविरहितत्वात् नानैकान्तिकाः। सपक्षे सत्त्वात् नानध्यवसिताः। पक्षे साध्याभावावेदकप्रमाणाभावात् न कालात्ययापदिष्टाः। स्वपक्षे सत्रिरूपत्वात् परपक्षे असत्त्रिरूपत्वात् न प्रकरणसमाः। यथोक्तसाध्यसाधनानां जल्पे सद्भावात् न दृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनोभयविकलो नाश्रयहीनश्च। ततो निर्दुष्टेभ्यो हेतुभ्यः तत्त्वज्ञानसंरक्षणादीनां वादे सद्भावसिद्धौ तदुक्तसाधनानां व्यभिचारः सिद्धः। लोकप्रसिद्धविचारे तत्त्वज्ञानसंरक्षणादितदुक्तहेतृनामभावात् साधनशून्यं पक्ष ( वाद) में विद्यमान हैं अतः व स्वरूपासिद्ध नहीं हैं तथा व्यधिकरणा सिद्ध भी नहीं हैं। यहां पक्ष प्रमाणों से ज्ञात है अतः ये हेतु आश्रयासिद्ध नही हैं । पक्ष में सर्वत्र विद्यमान हैं अतः वे भागासिद्ध नहीं है। पक्ष में उन का होना निश्चित है अतः वे अज्ञातासिद्ध नही हैं तथा संदिग्धासिद्ध भी नहीं हैं। विपरीत पक्ष में उन का अविनाभाव संबंध नही है यह निश्चित है अतः वे हेतु विरुद्ध नही हैं । विपक्ष में उन का अस्तित्व नही है अतः वे अनैकान्तिक नहीं हैं। सपक्ष में उन का अस्तित्व है अतः वे अनध्यवसित नहीं है। पक्ष में साध्य का अभाव बतलानेवाला कोई प्रमाण नही है अतः ये हेतु कालात्ययापदिष्ट नही हैं। स्वपक्ष में इन के तीन रूप हैं (वे पक्ष में हैं, सपक्ष हैं तथा विपक्ष में नही हैं) तथा विरुद्ध पक्ष में इन के तीन रूप नही हैं अतः वे प्रकरणसम नहीं हैं | पूर्वोक्त साध्य और साधन दोनों ही जल्प में विद्यमान हैं अतः जल्प का दृष्टान्त भी साध्यविकल, साधनविकल या उभयविकल नही है तथा आश्रयहीन भी नहीं है। इस प्रकार निदोषः हेतुओं से वाद में तत्त्वज्ञान का संरक्षण करना आदि साध्यों का अस्तित्व सिद्ध होता है इसलिए उन के (नैयायिकों के ) द्वारा प्रस्तुत साधन (हेतु) व्यभिचारी हैं (विपक्ष में भी पाये जाते हैं)। लोगों में प्रसिद्ध विचारविमर्श में तत्त्वज्ञान का संरक्षण करना आदि उक्त हेतु नहीं होते अतः उन का दृष्टान्त भी साधनविकल है। उन के द्वारा कहे गये हेतु वाद में भी पाये जाते है अतः उन का व्यतिरेक दृष्टान्त भी साधन-अव्यावृत्त है । अतः जल्प, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy