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________________ -१.१२१] पूर्वोक्त हेतुओं की निर्दोषता पूजाख्यातिकामैः प्रवृत्तो वादः समत्सरैः क्रियते वादः प्रतिवादिस्खलितमात्रपर्यवसानो वादः छलादिमान् वादः विचारत्वात् पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहा न्वितत्वात् निग्रहस्थानवस्वात् परिसमाप्तिमत्कथात्वात् सिद्धान्ता विरुद्धार्थ विषयत्वात् स्वाभिप्रेतार्थव्यवस्थापन फलत्वात् जल्पवदिति पञ्चसाध्येषु प्रत्येकं षट् हेतवो द्रष्टव्याः ॥ [ १२१. उक्तहेतुनां निर्दोषता ] सर्वत्र विप्रतिपत्तिनिराकरणेन स्वपक्षसौस्थ्यकरणमेव स्वाभिप्रेतार्थः तद्व्यवस्थापन फलं वादे जल्पेऽपि समानम् । अन्यहेतवः अङ्गीकृताः परैः वादे जल्पेऽपि । ततश्च उक्तहेतृनां पक्षे सद्भावात् न ते स्वरूपासिद्धाः न व्यधिकरणासिद्धाश्च, पक्षस्य प्रमाणसिद्धत्वात् नाश्रया ww Jain Education International ११३ वाद होता है, वह विचारविमर्श होता है, पक्ष और प्रतिपक्ष स्वीकार कर के किया जाता है, निग्रहस्थानों से युक्त होता है, तथा विचारविमर्श की समाप्ति तक किया जाता है, इन सब बातों में वह जल्प के समान ही है । वाद चार अंगों से संपन्न होता है, लाभ, कीर्ति, सत्कार आदि की इच्छा रखनेवाले प्रवृत्त होते हैं, मत्सरी वादी प्रतिवादी वाद करते हैं, प्रतिवादी का गलती होते ही बाद समात किया जाता है, बाद छल आदि से युक्त होता है (उपर्युक्त कथन में ) पांच साध्य हैं, इन में से प्रत्येक के समर्थन के लिए छह हेतु दिये जाते हैं वे इस प्रकार हैं- बाद विचारविमर्श है, वह पक्ष और प्रतिपक्ष स्वीकार कर के किया जाता है, वह निग्रहस्थानों से युक्त होता है, विचारविमर्श की समाप्ति तक किया जाता है, सिद्धान्त के अविरोधी अर्थ उस के विषय होते हैं, तथा अपने इष्ट अर्थ की स्थापना यह उस का फल है, इन सब बातों में वह जल्प के समान है ( अतः जल्प और वितण्डा विजय के लिए हैं एवं वाद विजय के लिए नहीं है यह भेद उचित नहीं है ) | पूर्वोक्त हेतुओं की निर्दोषता सभी प्रसंगों में विरोधी आक्षेपों को दूर कर के अपने पक्ष को उचित सिद्ध करना यही वादी को अभीष्ट बात होती है उस की व्यवस्था करना यह फल वाद और जल्प दोनों में समान हैं। शेष हेतु वाद और जल्प दोनों में हैं यह प्रतिपक्षियों ने (नैयायिकों ने ) भी स्वीकार किया है। यह पूर्वोक्त हेतु प्र.प्र. ८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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