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________________ ११२ प्रमाप्रमेयम् [१.१२०क्लहवत्। वादेन वदन्नेव तत्वाध्यवसायी परप्रतिबोधनाय प्रवृत्तत्वात अभिमततत्त्वज्ञानिवत् ॥ [१२०. जल्पवितण्डयोः विजिगीषुविषयत्वम् ] यदपि व्यरीरचद् योगः-जल्पवितण्डे विजिगीषुविषये तत्त्वज्ञानसंरक्षणार्थत्वात् चतुरङ्गत्वात् ख्यातिपूजालाभकामैःप्रवृत्तत्वात् समत्सरैः कृतत्वात् प्रतिवादिस्खलितमात्रपर्यवसानत्वात् छलादिमत्वाच्च लोकप्रसिद्धविचारवत् व्यतिरेके वादवदिति तत् स्वमनोरथमात्रम् । तत्वज्ञानसंरक्षणादिहेतूनां वादेऽपि सद्भावेन व्यभिचारात् । तथा हि । वादः तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थः स्वसिद्धान्ताविरुद्धार्थविषयत्वात् स्वाभिप्रेतार्थ: व्यवस्थापनफलत्वात् विचारत्वात् पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात् निग्रहस्थानवत्वात् परिसमाप्तिमद्विचारत्वात् जल्पवत् । तथा चतुरङ्गो वादः लाभ-. (प्रतिपक्षी ) को समझाने में प्रवृत्त हुआ है, जैसे कोई भी मान्य तत्त्वज्ञानी होता है। क्या जल्प और वितण्डा विजय के लिए ही होते हैं ? नैयायिकों ने जो यह कहा है कि जल्प और वितण्डा विजय की इच्छा से किये जाते हैं क्यों कि वे तत्त्वज्ञान के संरक्षण के लिए होते हैं, उन के चार अंग होते हैं, कीर्ति, सम्मान आदि लाभ की इच्छा रखनेवाले ही उन में प्रवृत्त होते हैं, मत्सरी वादी उन में भाग लेते हैं, प्रतिवादी की गलती होते ही वे समात होते हैं तथा वे छल आदि से युक्त होते हैं, इन सब बातों में वे जल्प और वितण्डा लोगों में सुप्रसिद्ध विचारविमर्श के समान है, बाद में ये सब बातें नहीं पाई जाती-यह नैयायिकों का कथन उन की कल्पनामात्र है ( वस्तुतः उचित नही है ) । ऐसा कहने का कारण यह है कि तत्त्वज्ञान का संरक्षण करना आदि ये सब हेतु वाद में भी विद्यमान है अतः उक्त हेतु व्यभिचारी हैं ( वे जल्पवितण्डा इस पक्ष में तथा वाद इस विपक्ष में दोनों में पाये जाते हैं)। इसी को स्पष्ट करते हैं-बाद तत्त्व के निश्चय के संरक्षण के लिए होता है क्यों कि अपने सिद्धान्त से अविरोधी अर्थ उस का विषय होता है, अपने लिए इष्ट अर्थ की स्थापना करना यह उस का फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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