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________________ कायासे बिचारै प्रीति मायाहीसौं हार जीति, लिये हठरीति जैसे हारिलकी लकरी। चुगलके जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि, त्यौं ही पाय गाड़े पै न छोड़े टेक पकरी ॥ मोहकी मरोरसौं भरमको न ठौर पावै, धावै चहु ओर ज्यौं बढ़ावै जाल मकरी। ऐसे दुग्बुद्धि भूलि झूठके झरोखे झूलि, फूली फिरै ममता जंजीरनिसौं जकरी ॥ बात सुनि चौकि उठे बातहीसों भौंकि उठे, बातसौं नरम होइ बातहीसौं अकरी। निंदा करै साधुकी प्रसंसा कर हिंसककी, साता मानै प्रभुता असाता मानै फकरी ॥ मोष न सुहाइ दोष देखै तहां पैठि जाइ, कालसौं डराइ जैसे नाहरसौं बकरी। ऐसे दुरबुद्धि भूलि झूठके झूरोखे झूलि, फूली फिरै ममता जंजीरनिसौं जकरी ॥ केई कहैं जीव छनभंगुर, केई कहैं करम करतार । केई करमरहित नित जंपहिं, नय अनंत नाना परकार ॥ जे एकांत गहैं ते मूरख, पंडित अनेकांत पख धार । जैसे भिन्न भिन्न मुकतागन, गुनसौं गुहत कहावै हार ।। • जथा सूतसंग्रह बिना, मुकतामाल न होइ । तथा स्यादवादी बिना, मोख न साधै कोइ ॥ ४० स० वि० द्वार इन सब उदाहरणोंसे समझमें आजाता है कि नाटक समयसार भावानुवाद होकर भी अनेक अंशोंमें मौलिक है। इस ग्रन्थका प्रचार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अधिक रहा है और अबसे कोई अस्सी वर्ष पहले (दिसम्बर सन् १८७६ में ) इसे भीमसी माणिक नामके श्वेताम्बर प्रकाशकने ही गुजरातीटीकासहित प्रकाशित किया था। इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ भी अनेक श्वेताम्बर साधुओंकी लिखी हुई मिलती हैं ।२ दिगम्बर सम्प्र. १–यह टीका मुनि रूपचन्दजीकी हिन्दी टीकाके आधारसे लिखी गई थी। २-'विशाल भारत' मार्च १९४७ में मुनि कान्तिसागरजीका 'क० बनारसीदास और उनके ग्रन्थोंकी हस्तलिखित प्रतियाँ' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें जिन प्रतियोंका परिचय दिया है, वे प्रायः सभी श्वे. मुनियों या श्रावकों द्वारा लिखी गई हैं। नाटक समयसारकी एक प्रति उदयपुरमें चन्द्रगच्छीय शान्तिसरिके विजयराज्यमें वस्तुपालगणि शिष्य सदारंग ऋषिने सं० १७१७ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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