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भावार्थ इसौ-जो जीव स्वरूप शुद्ध फुनि छै अशुद्ध फुनि छै शुद्ध अशुद्ध फुनि छ । इसौ कहतां अवधारिवाको भ्रमको ठौर छै तथापि जे स्याद्वादरूप वस्तु अवधारहि छै त्याहंको सुगम छ, भ्रम नाहीं उपजै छै । किसौ छै वस्तु-परस्परसुसंहृत्प्रकटशक्तिचक्र -- परस्परं कहा माहोमाही एक सत्ताप, सुसंहृत कहतां मिली छै इसी छै, प्रगट शक्ति कहतां स्वानुभवगोचर जो जीवकी अनेक शक्ति त्याहको, चक्र कहतां समूह छै जीव वस्तु । और किसौ छै, स्फुरत कहतां सर्वकाल उद्योतमान छ। पद्या० -- करम अवस्थामै असुद्धसौ बिलोकियत,
करमकलंकसौ रहित सुद्ध अंग है । उभै नैप्रमान समकाल सुदासुद्ध रूप,
ऐसो परजाइधारी जीव नाना रंग है ।। एक ही समै त्रिधारूप पै तथापि जाकी,
अखंडित चेतनासकति सरचंग है । यहै स्यादवाद याको भेद स्यादवादी जाने,
मूरख न माने जाकौ हियो ग भंग है ॥ ४८ साध्यसाधकद्वार आगे एक कलश दिया जा रहा है, जिसके अभिप्रायको बनारसीदासजीने कई पद्यों में बिल्कुल स्वतन्त्र रूपसे विस्तारके साथ नई नई उपमाएँ आदि देकर स्पष्ट किया हैकलश-आत्मानं परिशुद्धमी सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः
कालोपाधिबलादशुद्धमधिकां तत्रापि मन्या परैः। चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथकैः शुद्धर्जुसूत्र रतैरात्मा व्युज्झित एष हारलदहो निःसूत्रमुक्तक्षभिः !! १६
. --सर्वविशुद्धिद्वार पद्यानुवाद --कहै अनातमकी कथा, चहै न आतमसुद्धि ।
रहै अध्यातमसौ निमुख, दुराराध्य दुरबुद्धि ।। दुरबुद्धी मिथ्यामती, दुरगति मिथ्याचाल । गहि एकंत दुरबुद्धिसौं, मुकति न होइ त्रिकाल ।।
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