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________________ अचेतन छै । तिहि सुनतां जीवादि पदार्थको स्वरूपज्ञान ज्यौ उपजै छै त्यो ही जानिज्यौ । वाणीको पूज्यपणौ भी छै। किं विशिष्टस्य प्रत्यगात्मनः, किसौ छै सर्वज्ञ वीतराग । अनन्तधर्मणः अनंत कहतां अति बहुत छ, धर्म कहतां गुण जिहिको इसौ छै, भावार्थ - इसौ जो कोई मिथ्यावादी कहै छै परमात्मा निर्गुण छै गुण विनाश हूवा परमात्मापणो होइ छै, सो इसौ मानिवौ झूठो छै । जिहितै गुण विनश्यां द्रव्यको भी विनाश छ । पद्या०- जोग धरै रहै जोगसौ भिन्न, अनंत गुनातम केवलग्यानी । तासु हृदै द्रहौं निकसी, सरिता सम है सुतसिन्धु समानी॥ यातें अनंत नयातम लछन, सत्यसरूप सिधंत बखानी । बुद्धि लबै न लखै दुरबुद्धि, सदा जगमाहि जगै जिनबानी ॥३ जीवद्वार कलश-क्वचिल्लसति मेचकं कचिदमेचकामेचकं कचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम । तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहृतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत् ।। ९ साध्यसाधकद्वार बा० टी०-भावार्थ इसौ-इहि शास्त्रको नाम नाटक समयसार छै। तिहितै यथा नाटकवि एक भाव अनेकरूप करि दिखाइजै छै तथा एक जीव द्रव्य अनेक भावकरि साधिजै छै। मम तत्त्वं सहज, कहतां म्हारी ज्ञानमात्र जीव वस्तु सहज ही इसौ छै, किसौ छै। कचित् मेचकं लसति-कहतां कर्मसंयोगथकी रागादिभावरूप परिणतिकै देखतां अशुद्ध इसौ आस्वाद आवै छै । पुनः कहतां एकांतपनै इसौ ही छै, यौँ नहीं छै, इसौ फुनि छै। कचित् अमेचकं, कहतां एक वस्तुमात्र रूप देखतां शुद्ध छै एकांतपनै। इसौ फुनि न छै तो किसौ छै । क्वचितमेचकाभेचकं -- कहतां अशुद्धि परिणतिरूप, वस्तुमात्ररूप एक ही बारकै देखतां अशुद्ध फुनि छै शुद्ध फुनि । इसी दौऊ विकल्प घटै छै इसौ क्यौ छै । तथापि कहतां तौ फुनि, अमलमेधसां तत् मनः न विमोहयति -- अमलमेधसां कहतां सम्यग्दृष्टि जीवहकों, तत् मनः कहतां तत्वज्ञानरूप छै जो बुद्धि, न विमोहयति, कहतां संशयरूप नहीं भ्रमै छै । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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