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________________ श्वेताम्बर थे और न दिगम्बर । म० मेघविजयजीने अपने युक्तिप्रबोध (१७ वीं गाथाकी टीका) कहा है कि "अध्यातमी या वाराणसीय कहते हैं कि हम न दिगम्बर हैं और न श्वेताम्बर, हम तो तत्त्वार्थी-तत्त्वकी खोज करनेवाले हैं। इस महीमण्डलमें मुनि नहीं हैं। भट्टारक आदि जो मुनि कहलाते हैं वे गुरु नहीं हैं । अध्यात्म मत ही अनुसरणीय है, आगमिक पन्थ प्रमाण नहीं है, साधुओंके लिए वनवास ही ठीक है ।” ___ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अध्यातमी न दिगम्बर थे और न श्वेताम्बर | वे अपनेको केरल जैन समझते थे और उनकी दृष्टिमें श्वेताम्बर यति मुनि और दिगम्बर भट्टारक दोनों एक-से थे, जैनत्वसे दूर थे और इसीलिए इन दोनों सम्प्रदायोंके धनी धोरियोंने अपने स्वच्छन्द शासनोंकी नींव हिलती देखी और उनकी रक्षाका प्रबन्ध किया। __ श्वेताम्बरोंके समान दिगम्बर सम्प्रदायके विचारशील लोगोंने भी इस अध्यात्म मतको अपनाया और उनमें यह तेरापंथ नामसे प्रचलित हुआ। कामा, सागानेर, जयपुर आदिमें यह पहले फैला और उसके बाद धीरे धीरे सर्वत्र फैल गया। बनारसी-साहित्यका परिचय - १-नाममाला-बनारसीदासजीकी उपलब्ध रचनाओंमें यह सबसे पहली है जो आश्विन सुदी १० संवत् १६७० को समाप्त हुई थी। अपने परम विचक्षण मित्र नरोत्तमदास' खोबरा और थानमल खोबराके कहनेसे उनकी इसमें प्रवृत्ति हुई थी। धनंजयकी संस्कृत नाभमालाके ढंगका यह एक छोटा-सा पद्यबद्ध शब्दकोश है और बहुत ही सुगम है। ___ अपनी आत्मकथामें उन्होंने लिखा है कि जब उनकी अवस्था चौदह वर्षकी थी तब पं० देवदत्तके पास उन्होंने नाममाला और अनेकार्थकोश पढ़ा था। .१-मित्र नरोत्तम थान, परम बिचच्छन धरमनिधि (धन)। तासु बचन परवांन, कियौ निबंध विचार मन ॥ १७० सोरहसै सत्तरि समै, असो मास सित पच्छ । बिजै दसमि ससिबार तह, स्रवन नखत परतच्छ ॥ १७१ दिन दिन तेज प्रताप जय, सदा अखंडित आन । पातसाह थिर नूरदी, जहांगीर सुलतान ।। १७२ - नाममाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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