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ताकौं मुक्ति न होहिगी, सही दुबुद्धी जीव ॥७ आत्मप्रबोध-छत्तीसीके अन्तमें राजस्थानीयह टिप्पण दिया है
" हूं आहिर बगीची उपाश्रय छोडिनै आय बैठो, जद श्रावगी कालो जाते ऋषभदासै मनै कह्यु, थे सिद्धांत वांचौ तौ दोय घड़ी हूं भी आवू, जद मैं कह्यो, हूं तौ उत्तराध्ययन मूत्र बांधू छू, तद तिणे कयूं समसारजी सिद्धांत बांचौ । जद मैं का समसार जिनमन्नौ चोर छै तिवारे कडं हें ! समसारमें चोरी छै तो मनैं दिखावो । तिवारै आस्रवसंवरद्वारे 'आसवा ते परीसवा परीसवा ते आसवा' ए सिद्धांतनूं एक पक्ष ग्रहीने जो चोरी हुती ते छत्तीसीमें कही, ते. सुणी मगन थई गयो। इति । ” अर्थात् समयसार जिनमतका चोर है, उसमें जो सिद्धान्तकी एकपक्षी चोरी है, वह छत्तीसीमें बतला दी। सुनकर ऋषभदास काला मगन हो गया। इससे मालूम होता है कि ज्ञानसारजी अध्यात्ममत और नाटक समयसारको किस दृष्टिसे देखते थे ।
ज्ञानसारजीकी अनेक रचनाओंमें एक और छोटी-सी रचना भाव-छत्तीसी है। उसके अन्तिम दोहेका टिप्पण है-- ___“जैनगरे गोल्छागोत्रे सुखलाल श्राक्कै आजन्म जिनमत अरागियै शुद्धवृत्त जिनदर्शन आदरयौ। पछी हूं किसनगढ़ आयौ, तिवारै समयसार जिनमत विरुद्ध वांचतौ सुण ए रचीन मूकी। तेऊए बांचीन वाचवू मूकी दीवू" अर्थात् जयपुर में गोलेछा गोत्रके (ओसवाल) सुखलाल श्रावकने अरागी शुद्धवृत्तिसे जिनदर्शन अहण किया। फिर मैं किशनगढ़ चला आया, जब मने सुना कि वह जिनमतविरुद्ध समयसार बाँचता है, तब यह भावछत्तीसी रचकर रख दी। उसने भी इसे पढ़कर समयसारका पढ़ना छोड़ दिया। १---यह समयसारके इस दोहेको लक्ष्य करके है
लीन भयो बिवहारगे, उकति न उपजै कोइ।
दीन भयौ भुपद जौ, मुकति कहाँत होह ॥ २२-निर्जरा द्वार २----ऋषभदाम काला (खंडेलवाल, सरावगी) ३-नाहटाजी इसे 'ज्ञानसारपदावली ' में छपा रहे हैं।
४-ज्ञानसारजीका राजस्थानी भाषामें एक 'कामोद्दीपन' नामका ग्रन्थ है, जो जयपुरके राजा माधवसिंह के पुत्र प्रतापसिंहजीकी प्रसन्नता के लिलिखा गया है। 'माधवसिंहवर्णन' नामकी एक छोटी-सी रचना राजाकी प्रशंसामें भी है।
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