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________________ ६६. ! महोपाध्याय धर्मवर्द्धन के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं और एक दो तो प्रकाशित भी हो चुके हैं। उनकी राजस्थानी रचनाएँ ही अधिक हैं । ग्रन्थरचनाकाल सं० १७१९ से १७७३ तक है । इसी समयके बीच उक्त सवैया लिखे गये होंगे । मुलतानमें अध्यात्मी श्रावकोंका अच्छा समूह था जो कि पहले खरतर गच्छका अनुयायी था, अतएव स्वाभाविक है कि उन्होंने धर्मवर्धनजीसे प्रश्न पूछकर पत्रद्वारा समाधान चाहा होगा । पर उन्होंने उत्तरमें कटाक्ष ही किये हैं कि तुम आगमोंकी परवाह नहीं करते, कुछ समझते बूझते नहीं, परमात्मप्रकाश, द्रव्यसंग्रह आदिको प्रमाण मानते हो' । अध्यात्ममतके समालोचक ये तीनों ही ग्रन्थकार बनारसीदासजीके स्वर्गवासके बादके--अठारहवीं शताब्दि के पूर्वाधके हैं और तीनों श्वेताम्बर हैं । ज्ञानसारजी खरतरगच्छीय रत्नराजगणिके शिष्य ज्ञानसारजी १९ वीं शताब्दिके हैं । उनके अनेक ग्रन्थ -- राजस्थानी और हिन्दीके - श्री अगरचन्दजी नाहटा के संग्रहमें हैं । उनमेंसे 'आत्मप्रबोध छत्तीसी' में - जो वि० सं० १८६५ के लगभग रची गई है, अध्यात्ममत और नाटक समयसारको लक्ष्य करके कुछ कटाक्ष किये गये हैं । अथ अध्यात्ममत कथन जो जिय ग्यानरसै भरयौ, ताकै बंध नवीन । हि नहीं, ऐसौ कहै, सौ दुबुद्धि मतिछीन ॥ ६ सोऊँ कहि विवहारमैं, लीन भयौ ज्यौं जीव । १ - श्री अगरचन्द नाहटाके भेजे हुए पहले गुटके में भी जो कुँअरपाल के हाथका लिखा हुआ है, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह भाषाटीका सहित लिखे हुए हैं। इससे भी मालूम होता है कि इन ग्रन्थोंका अध्यात्मियोंमें विशेष प्रचार था । उक्त गुटके में योगसार, नयचक्र आदि भी हैं। २ - यह नाटक समय सारके इस दोहेको लक्ष्य करके कहा है - ग्यानी ग्यानमगन रहे, रागादिक मल खोइ । चित उदास करनी करै, करमबंध नहिं होइ ॥ ३६ - निर्जराद्वार ' सोऊ ' शब्दपर टिप्पण है- समसारमती है । · ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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