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________________ बहुत-सी गलत हैं ! सं० १६८० में बनारसीमतकी उत्पत्ति बतलाना भी ठीक नहीं है । इस संवत् में तो उन्हें समयसारकी बालबोधटीका मिली थी जिससे आगे चलकर उनके विचारोंमें परिवर्तन हुआ । अध्यात्म मत या बनारसी मतका जो स्वरूप बतलाया है, वह भी ठीक नहीं जान पड़ता । कमसे कम जिस समय मेघविजयजीका ग्रन्थ लिखा गया, उस समय वाराणसीदास एकान्त निश्चयावलम्बी नहीं थे। उससे पहले १६८० से १६९२ तक अवश्य ही वैसे रहे होंगे । अर्ध-कथानकके अनुसार तो पांडे रूपचन्दजीके उपदेशसे १६९२ में ही बनारसीदासजी ठीक मार्गपर आ गये थे । पर 'अर्ध कथानक ' शायद मेघवियजीकी नजरसे गुजरा ही नहीं । ३- धर्मवर्द्धन महोपाध्याय - खरतरगच्छ के महोपाध्याय धर्मवर्द्धनने भी अध्यात्म मतके विरोध में 'अध्यातममतीयारो सवैयो' लिखा है जिसे श्री अगरचन्दजी नाहटाने अपने संग्रहमेंसे ढूँढ़ कर भेजनेकी कृपा की है। पहले सवैयामें कहा है कि अनादिकालके रूढ़ आगमोंको तो इन अध्यात्मियोंने उठा दिया और ये अबके बने हुए बालबोधोंको ( भाषा टीकाओंको ) ठीक मानते हैं । जोगी और भक्तोंके पास तो ये दूरसे ही दौड़े जाते हैं, परन्तु जैन जती इन्हें देखे भी नहीं सुहाते । क्रिया दान आदि छोड़ दिये हैं, और इन्हें ऐसा पक्षपात हो गया है कि किसीका रत्तीभर भी १ - आगम अनादिके उथापि डारे आपै रूढ, rah बनाए बालबोध मानै संमती । जोगी जिदे भक्तनिषै दूरहुते दौरे जात, देखत सुहात नांहि एक जैनके जती ॥ ऐसो उदै क्रोध मान दूर किए किया दान, ऐसे पच्छाती गुन काहूकौ न येँ रती । बावन ही अच्छरकूं पूरेसे पिछाने नांहि, hi पिछाने कहौ आतम अध्यातमी ॥ ( मुलतानरे अध्यातमीये प्रश्न पूछायांरो उत्तर सवैया १ काव्य १ दूहो १, नवा करीने मूक्या दुरुस्त बात जाणीनै खुसी थया) अर्थात् मुलतानके अध्यात्मियोंने प्रश्न पुछाये थे, उनका उत्तर । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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