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निश्चय सम्यक्त्व ही उपयोगी है, उसीका आचरण करो, सर्वधर्मसार उपशमका आश्रय लो और इन लोकप्रत्यायिका क्रियाओंको छोड़ दो। अनेक आगमयुक्तियोंसे समझानेपर भी वे अपने पूर्वमतमें स्थिर नहीं हो सके बल्कि श्वेताम्बरमान्य दश आश्चर्यादिको भी अपनी बुद्धिसे दूषित कहने लगे।
प्रायः अध्यात्मशास्त्रों में ज्ञानको ही प्रधानता है और दान-शील-तपादि क्रियाएँ गौण हैं, इसलिए निरन्तर अध्यात्मशास्त्रोंके श्रवणसे उन्हें दिगम्बरमतमें विश्वास हो गया। वे उसीको प्रमाण मानने लगे। प्राचीन दिगम्बर श्रावक .अपने गुरु मुनियों ( भट्टारकों) पर श्रद्धा रखते हैं, परन्तु इनकी उनपर भी
अश्रद्धा हो गई। पिच्छिका-कमण्डलु आदि परिग्रह हैं, इसलिए मुनियोंको ये न रखने चाहिए । आदिपुराण आदि भी किंचित् प्रमाण हैं ।
अपने मतकी वृद्धि के लिए उन्होंने भाषा कवितामें नाटक समयसार और बनारसीविलासकी रचना की।
विक्रम सं० १६८० में बनारसीदासका यह मत उत्पन्न हुआ। बनारसीदासके कालगत होनेपर कुँअरपालने इस मतको धारण किया और तब वह गुरुके समान माना जाने लगा।
इस प्र थका अधिकांश उन सब बातोंके खंडनसे भरा हुआ है जो दि० श्वे. में एक-सी नहीं मिलतीं, परस्पर भिन्न हैं। __ इस ग्रन्थमें भी रचना-काल नहीं दिया गया है, परन्तु जान पड़ता है कि यह यशोविजयजीके ग्रन्थोंके चालीस पचास वर्ष बादका है और संभवतः उन्हींकी अध्यात्ममतपरीक्षाके अनुकरणपर लिखा गया है ।
मेघविजयजीने हेमचन्द्र के शब्दानुशासनकी चन्द्रप्रभा-टीका वि० सं०१७५७ में आगरेमें ही रहकर लिखी थी, अतएव लगभग उसी समय उन्हें अध्यात्ममत की जानकारी हुई होगी और तभी युक्तिप्रबोध लिखा गया होगा।
इसमें पं० रूपचन्द आदि साथियोंके सम्बन्धकी बातें तो नाटक समयसार को देखकर लिखी गई हैं और शेष सब लोगोंसे सुनसुनाकर लिखी हैं जिनमेंसे १- कुँवरपाल बनारसीदासके मित्र थे । वे उनकी मृत्युके बाद गुरु बन गये . या गुरुके समान माने जाने लगे, इसका कोई प्रमाण नहीं । वे कोई महन्त नहीं थे, जो उनके उतराधिकारी कँवरपाल होते। ..
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