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वे बनारस गये । वहाँ उन्होंने तीन वर्ष तक विविध दर्शनोंका अभ्यास किया और फिर उसके बाद आगरे आकर एक न्यायाचार्य के पास सं० १७०३-४ से १७०७ - ८ तक कर्कश तर्कग्रन्थ पढ़े और उसके बाद अहमदाबादकी ओर बिहार किया जान पड़ता है, तभी १७०८ के लगभग उन्हें आगरेमें अध्यात्ममतका परिचय हुआ होगा और तभी उक्त ग्रन्थ लिखे गये होंगे । पाण्डे हेमराजने 'सितपट चौरासी बोल ' सं० १७०७ में लिखा है ।
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२- मेघविजयजी महोपाध्याय - यशोविजयजीके बाद मेघविजयजीने अध्यात्म मतके विरोध में युक्तिप्रबोध' नामका ग्रन्थ लिखा है जिसमें २५ प्राकृत गाथाएँ हैं और उनपर ४५०० श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ संस्कृतटीका है । मूल गाथाएँ और टीकाका कुछ अंश हम परिशिष्ट में दे रहे हैं । लिखा है कि आगरे में ' आध्यात्मिक ' कहलानेवाले ' वाराणसीय ' मती लोगोंके द्वारा कुछ भव्य जनोंको विमोहित देखकर उनके भ्रमको दूर करनेके लिए यह लिखा गया ।
ये वाराणसीय लोग श्वेताम्बरमतानुसार स्त्री मोक्ष, केवलिकवलाहारादिपर श्रद्धा नहीं रखते और दिगम्बर मतके अनुसार पिच्छिका कमण्डलु आदिका भी अंगीकार नहीं करते, तब इनमें सम्यक्त्व कैसे माना जाय १
आगरेमें बनारसीदास खरतरगच्छ के श्रावक थे और श्रीमालकुलमें उत्पन्न हुए थे । पहले उनमें धर्मरुचि थी । सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रोषध, तप, उपधानादि करते थे, जिनपूजन, प्रभावना, साधर्मीवात्सल्य, साधुवन्दना, भोजनदानमें आदरबुद्धि रखते थे, आवश्यकादि पढ़ते थे, और मुनि श्रावकों के आचारको जानते थे । कालान्तर में उन्हें पं० रूपचन्द, चतुर्भुज, भगक्तीदास, कुमारपाल, और धर्मदास ये पाँच पुरुष मिले और शंका विचिकित्सासे कलुषित होनेसे तथा उनके संसर्गसे वे सब व्यवहार छोड़ बैठे । उन्हें श्वेताम्बर मतपर अश्रद्धा हो गई । कहने लगे कि यह परस्परविरुद्ध मत ठीक नहीं है, दिगम्बर मत ही सम्यक् है । वे लोगोंसे कहने लगे कि इस व्यवहार - जाल में फँसकर क्यों व्यर्थ ही अपनी विडम्बना कर रहे हो ? मोक्षके किए तो केवल आत्मचिन्तनरूप
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१ ऋषभदेव केसरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम द्वारा प्रकाशित ।
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