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दोऊ भूले भरममैं, करें बचनकी टेक । 'राम राम' हिंदू कहैं, तुर्क 'सलामालेक' ॥ ५ इनके 'पुस्तक' बांचिए, बेहू पढ़ें 'कितेब'। एक बस्तुके नाम दो, जैसे 'सोभा' 'जेब' ॥ ६ तिनकौं दुबिधा, जे लखें, रंग बिरंगी चाम । मेरे नैननि देखिए, घट घट अंतर राम ॥ ७ यहै गुपत यह है प्रगट, यह बाहर यह मांहि । जब लगि यह कछु है रह्या, तब लगि यह कछु नाहि ॥ ८ ब्रह्मग्यान आकासमैं, उड़ति, सुमति खग होइ । जथासकति उद्यम करहि, पार न पावहि कोई ॥ ९ जो महंत है ग्यान बिन, फिरै फुलाए गाल |
आप मत्त औरनि करै, सो कलिमांहि कलाल ॥ १० अन्य संतोंके समान ही उन्होंने लिखा है
जो घरत्याग कहावै जोगी, घरवासीको कहै जो भोगी। अंतरभाव न परखै जोई, गोरख बोले मूरख सोई ।। पढ़ि ग्रंथ हिं जो ग्यान बखान, पवन साधि परमारथ मान । परम तत्तके होंहि न मरमी, कह गोरख सो महा अधरमी॥ बिन परचै जो बस्तु बिचारै, ध्यान अगनि बिन तन परजारै ।
ग्यान मगन बिन रहे अबोला, कह गोरख सो बाला भोला ॥ इससे उनके सम्प्रदायको श्वेताम्बर-दिगम्बर कहनेकी अपेक्षा अध्यातमी कहना ही ठीक है, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है ।
अध्यात्म-मतका विरोध उनके इस मतका विरोध सबसे पहले श्वेताम्बर सम्प्रदायके साधुओंने किया। क्योंकि इस मतका प्रचार पहले श्वे० श्रावकोंमें ही हुआ था। आगे हम उनका और उनके विरोधका परिचय दे रहे हैं --
१-यशोविजयजी उपाध्याय-यशोविजयजीका संस्कृत, प्राकृत और गुजरातीमें विपुल साहित्य उपलब्ध है । बनारस और आगरामें अधिक समय
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