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थे। ज्ञात होता है कि अकबरकी 'दीने इलाही' प्रवृत्ति इसी प्रकारकी आध्यात्मिक खोपका परिणाम थी। बनारसमें भी अध्यात्मियोंकी एक सैली या मंडली थी। किसी समय राजा टोडरमल्लके पुत्र गोवर्धनदास इसके मुखिया थे ।” ___ सो बनारसीदासजी ऐसी ही अध्यातम सैलीके प्रमुख सदस्य थे और जैन थे,- श्वेताम्बर या दिगम्बर नहीं। वे परमतसहिष्णु और विचारोंमें उदार थे। बनारसीविलासमें संग्रहीत उनके कुछ दोहे देखिए
तिलक तोष माला विरति, मति मुद्रा श्रुति छाप । इन लच्छनसौं बैसनव, समुझै हरि-परताप ॥ १ जो हर घटमैं हरि लखै, हरि बाना हरि बोइ । हर छिन हरि सुमरन करे, बिमल बैसनव सोइ ॥२ जो मन मूसै आपनो, साहिबके रुख होइ । ग्यान मुसल्ला गहि टिकै, मुसलमान है सोइ ॥ ३ एक रूप हिन्दू तुरक, दूजी दसा न कोइ ।
मनकी दुबिधा मानकर, भए एकसौं दोइ ॥ ४ १- 'दीने इलाही' बादशाह अकबरका प्रचलित किया हुआ नया धर्म था जिसमें मतसहिष्णुता और उदारताको प्रश्रय दिया गया था। " फतेहपूर सीकरीके इबादतखाने में हर सातवें रोज भिन्न भिन्न धर्मोके पण्डित इकट्ठे किये जाते थे। मुसल्मान मौलवी, हिन्दू पण्डित, ईसाई पादरी, बौद्ध भिक्षु और पारसी गुरु अपने अपने पक्षका समर्थन करते थे । बादशाहकी ओरसे अबुल फजल मन्त्रीका कार्य करता था। वह बहसके लिए सवाल सामने रखता था
और मौका पाकर ऐसे शोशे छोड़ देता था कि भिन्न भिन्न धर्मोंके अनुयायी अपना पक्षसमर्थन छोड़कर परस्पर गाली गलौजपर उतर आते थे । अकबर मजहबी गुरुओंकी मूर्खताओंका तमाशा देखता था ।...भिन्न भिन्न धर्मोंके वादविवादमेंसे उसने यह सार निकाला कि हरेक धर्ममें सचाईका अंश विद्यमान है, हर एक धर्ममें सचाईको रूढि ढोंग और कल्पनाओंके खोलमें ढंकनेका प्रयत्न किया है । आँखोंवाला आदमी उन ढंकनोंके अन्दर छुपी हुई सचाईको सब जगह देख सकता है, परन्तु नासमझ लोग सचाईको छोड़ रूढि-ढोंग और कल्पनाके जालमें ही उलझ जाते हैं।...हिन्दूधर्म, जैनधर्म और ईसाइयतके धार्मिक विचारोंमेंसे उसने बहुत-सी कामकी बातें चुन ली । वेदान्तके उपदेश उसे बहुत भाते थे।" -मुगल साम्राज्यका क्षय और उसके कारण, पृ. २४-२५ ।
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