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नारनोलनिवासी पं० खड्गसेनने अपने त्रिलोकदर्पण (वि० सं० १७१३) में लाभपुर या लाहौरके ज्ञाताओंका उल्लेख किया है जिनमें पं० हीरानन्द,
और संघवी जगजीवनके सिवाय रतनपाल, अनूपराय, दामोदरदास, माधवदास बिसनदास, हंसराज, प्रतापमल्ल, तिलोकचन्द, नारायणदास आदिके भी नाम दिये हैं-'ए सब ग्याता अति गुनवंत, जिनगुन सुनै महा विकसंत ।" और 'याहि लाभपुरनगरमैं, श्रावक परम सुजान । सब मिलकर चरचा करें, जाको जो उनमान ।' सो यह भी अध्यातम-सैली ही जान पड़ती है।
जयपुर में भी सैलियाँ रही हैं, परन्तु उनका नाम पीछे तेरहपंथ सैली हो गा था। पं. जयचन्दजी छावड़ा (सं. १८६४) ने उसका उल्लेख किया है । २
ऐसा जान पड़ता है कि यह अध्यात्ममत और अध्यातमी बनारसीदासजीके पहले भी थे। सं० १६५५ में जब बनारसीदासजी अपने पिताकी आज्ञासे फतेहपुर गये, तब जिन भगवतीदास ओसवालके घरपर ठहरे, उनके पिता बासूमाह अध्यातमी थे-'बासूमाह अध्यातमी जान ।' और इसी तरह सं० १६८० में जब वे खैराबाद गये तब वहाँ अरथमल ढोर मिले जो अध्यात्मकी बातें जोर-शोरसे करते थे और उन्होंने समयसारकी राजमलकृत बालबोध-टीका इन्हें दी । शायद इस टीकाके प्रभावसे ही वे अध्यातमी हो गये।
डा. वासुदेवशरण अग्रवालने लिखा है- "बीकानेर-जैन लेख-संग्रहमें अध्यातमी सम्प्रदायका उल्लेख भी ध्यान देने योग्य है । वह आगरेके ज्ञानियोंकी मंडली थी जिसे 'सैली' कहते थे। अध्यातमी बनारसीदास इसी के प्रमुख सदस्य
१-महावीर-ग्रन्थमालाका प्रशस्तिसंग्रह पृ०.२१६-१७. २-तामै तेरहपंथ सुपंथ, सैली बड़ी गुनीगन ग्रंथ । ३ तब तहं मिले अरथमल ढोर, करें अध्यातम बातें जोर।
तिन बनारसीसौं हित कियौ, समसार नाटक लिखि दियौ ॥ ५९२
४- 'मध्यकालीन नगरोंका सांस्कृतिक अध्ययन'-चैन-सन्देश, जून १९५७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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