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बातें जोरके साथ करते थे । उन्होंने समयसार - कलशोंकी पं० राजमल्लकृत बालबोध-टीका लिखकर दी और कहा कि इसे पढ़िए, इससे सत्य क्या है, सो समझमें आ जायगा । तदनुसार पढ़ने लगे और उसके अर्थपर प्रतिदिन विचार करने लगे । पर उससे अध्यात्मकी असली गाँठ नहीं खुल सकी और वे बाह्य क्रियाओंको 'हेच' समझने लगे । ' करनी ' या क्रिया - बाह्य आचार - में तो कोई रस रहा नहीं और आत्मस्वाद या आत्मानुभव हुआ नहीं, इस तरह वे न धरतीके रहे और न आसमान के ' | उन्होंने जप-तप सामायिक प्रतिक्रमण आदि छोड़ दिये और हरी- त्याग आदि भी जो प्रतिज्ञाएँ की थीं वे भी तोड़ दीं । बिना आचारके बुद्धि बिगड़ गई । देवको चढ़ाया हुआ नैवेद्य तक खाने लगे। उन्हें अपने तीन साथियों—चन्द्रभान, उदयकरन और थानमंलके साथ ‘जूतंफाग ' खेलनेमें, एक दूसरेकी सिरकी पगड़ी छीनने और धींगामस्ती करनेमें आनन्द आने लगा । चारों जनें यह खेल खेलते थे और फिर अध्यात्मकी बातें करते थे । चारों नंगे हो जाते थे और कोठरी में घूमते हुए कहते थे - हम मुनिराज हो गये हैं, हमारे पास कोई परिग्रह नहीं रहा है । लोग समझाते थे, पर किसीकी बात नहीं सुनी जाती थी । तब श्रावक और जती ( ० साधु ) बनारसीदासको खोसरामती कहने लगे । चूँकि वे पंडित रूपसे विख्यात थे इसलिए उन्हींकी निन्दा अधिक होती थी, दूसरोंकी नहीं । कुछ समय में यह धूमधाम तो मिट गई पर कुछ और ही अवस्था हो गई । जिनप्रतिमाकी मनमें निन्दा करने लगे और मुँहसे वह कहने लगे जो नहीं कहना
फिर आकर छोड़ देते थे । और एकान्त मिथ्यात्वमें
चाहिए | गुरुके सम्मुख जाकर व्रत ले लेते थे और रात-दिनका विचार न करके पशुकी तरह खाते थे मत्त रहते थें ।
- करनीको रस मिटि गयौ, भयौ न आतमस्वाद । भई बनारसिकी दसा, जथा ऊंटकौ पाद ॥ ५९५
२-- अर्ध-क० ५९५-६०६ ।
३ - कहैं लोग श्रावक अरु जती । बानारसी खोसरामती ॥ ६०८
४--६११-१२ ।
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