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उन्होंने कोकशास्त्र पढ़ा था, कहा नहीं जा सकता कि इसका उनके चरित्रपर क्या प्रभाव पड़ा होगा। नवरसरचनामें तो जरूर ही उसने सहायता दी होगी।
जनेऊकी कथा एक बार बनारसीदास अपने मित्र और उसके ससुरके साथ पटना जा रह थे कि एक चोरोंके गाँवमें जा पहुँचे। चोर ब्राह्मणोंको नहीं सताते थे और जनेऊ ब्राह्मणत्वका चिह्न है। इस लिए इन तीनोंने उस समय सूतसे जनेऊ बँटकर पहिन लिये, मस्तकपर तिलक लगा लिया और श्लोक पढ़कर उन्हें आशीर्वाद दिया। फल यह हुआ कि चोरोंके चौधरीने इन्हें ब्राह्मण समझकर आरामसे अपनी चौपालपर ठहराया और दूसरे दिन आदरपूर्वक बिदा कर दिया। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि उस समय जैन श्रावक जनेऊ नहीं पहिनते थे' और ब्राह्मण चोरोंके लिए भी पूज्य थे।
साहूकारोंका वैभव ___ उस समय बहुत बड़े बड़े साहूकार और प्रभावशाली धनी थे। अर्ध-कथानकमें अनेक व्यापारियोंकी चर्चा आई है। उनमेंसे आगरेके नेमासाहके पुत्र सबलसिंघ मोठियाका वर्णन विशेषरूपसे दिलचस्प है। उनके यहाँ बनारसीदासका साझेका हिसाब पड़ा था । साहूका पत्र जौनपुर पहुँचा कि तुम्हारे बिना हिसाब नहीं हो सकता, तुम आगरे आकर उसे साफ कर जाओ। इसपर वे रास्तेकी अनेक मुसीबतें झेलकर आगरे आये और हिसाबके लिए साहजीके घर जाने आने लगे, पर वहाँ लेखा-कागज कौन पूछता था । देखा कि साहुजी वैभवमें मदमत्त हैं, कलावंतोंकी पंक्ति गा बजा रही है, मृदंग बज रहे हैं, शाहजादेकी तरह महफिल जमो हुई है, निरन्तर दान दिया जा रहा है, कवि और बन्दीजन कवित्त पढ़ रहे हैं, उस साहबीका वर्णन कौन कर सकता है ? देखकर सब चकित हो जाते थे। बनारसीदास सोचते थे-हे भगवन् , यह लेखा किसके पास आ बना है। सेवा करते करते हाजिरी देते देते महीनों बीत गये । जब भी लेखेकी बात की जात., साहुजी कहते, कल सवेरे हो जायगा । उनकी घड़ी एक
१-अ० क० ४१७-४२६ ।
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