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________________ Le ३ सर्वनामके सम्बन्ध कारकके रूप 'मोर, तोर', हमार', 'तुमार ' । ४ सहायक क्रियाके रूप अहौं, अही, अहे, अह्यो, अहै, अहीं, तथा बाट धातुके रूप बाटूपेउँ बाटी, और रह धातुके रूप रहेउँ, रहे, आदि । ५ क्रियार्थक संज्ञाओंके 'ब' अन्तक रूप जैसे देखत्र । भविष्यकालके बोधक अधिकांश रूप भी 'ब' लगाकर बनते हैं । जैसे -- देखबू आदि । इन लक्षणोंका तो अर्ध-कथानककी भाषामें प्रायः अभाव ही पाया जाता है । अतः उसको हम अवधी नहीं कह सकते । यदि हम विशेष बोलियोंकी विशेषताएँ इस ग्रंथकी भाषामें ढूँढ़ें तो हमें उनका भी अभाव दृष्टिगोचर होता है। न यहाँ राजस्थानी की मूर्द्धन्य ध्वनियोंका प्राधान्य है, ८ " न के स्थानपर 'ण' भी नहीं है, न बुन्देलीका < ड़' के स्थानपर ' र ' और मध्य व्यंजन 'इ' का लोप पाया जाता है । - कथानक में उर्दू-फारसीके शब्द काफी तादादमें आये हैं, और अनेक मुहावरे तो आधुनिक खड़ी बोली ही कहे जा सकते हैं । इसपरसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बनारसीदासजीने अर्धकथानककी भाषा में ब्रजभाषाकी भूमिला लेकर उसपर - कालमें बढ़ते हुए प्रभाववाली खड़ी बोलीकी पुट दी है, और इसे ही उन्होंने 'मध्यदेशकी बोली ' कहा है जिससे ज्ञात होता है कि मिश्रित भाषा उस समय मध्यदेशमें काफी प्रचलित हो चुकी थी । इस कार अर्ध-कथानक भाषाकी दृष्टिसे खड़ी बोलीके आदिम कालका एक अच्छा उदाहरण है । १ जून १९४३ wwwwww ( द्वितीय संस्करणकी विशेषता ) बड़े हर्षकी बात है कि अर्ध-कथानकके प्रथम संस्करणका साहित्यिक संसारमें खूब सत्कार हुआ । उसकी प्रतियाँ शीघ्र ही दुर्लभ हो गई और लोग पुनः प्रकाशनकी माँग करने लगे ! इसके फलस्वरूप अब विद्वान् पादकने न केवल इस संस्करणद्वारा इस ग्रंथकी माँगको ही पूरा किया है, किन्तु इस महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रंथकी जो कुछ उपलम्य सामग्रीका प्रथम संस्करण में उपयोग नहीं किया जा सका था उसका भी पूर्ण परिशीलन कर ग्रन्थको और भी परिशुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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