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________________ अर्ध-कथानककी भाषा [डॉ० हीरालाल जैन, एम० ए०, एल० एल० बी०]. अर्ध-कथानकका जितना महत्त्व उसके साहित्यिक गुणों और ऐतिहासिक वृत्तान्तके कारण है उतना ही और संभवतः उससे भी अधिक उसकी भाषाक कारण है । सत्रहवीं शताब्दि और उससे पूर्वके हिन्दी साहित्यका भाषा और व्याकरणकी दृष्टि से अभीतक पूर्णतः वर्गीकरण नहीं किया जा सका है और इसलिए किसी एक नवीन ग्रन्थके विषयमें यह कहना कठिन है कि हिन्दीकी सुज्ञात उपभाषाओंमेंसे उस ग्रन्थकी भाषा कौन-सी है। बनारसीदासजीने अपने अर्घ-कथानककी भाषाको स्पष्ट रूपसे 'मध्य देशकी बोली' कहा है और प्राचीन संस्कृत-साहित्यमें मध्य देशको चतुःसीमा इस प्रकार पाई जाती है-उत्तरमें हिमालय, दक्षिणमें विन्ध्याचल, पूर्वमें प्रयाग और पश्चिममें विनशन अर्थात् पंजाबके सरहिन्द जिलेका वह मरुस्थल जहाँ सरस्वती नदीका लोप हुआ है । चीनी यात्री फाहियानने (स० ४५७) मताऊल (मथुरा) से दक्षिणके प्रदेशको मध्यदेश कहा है और अलबेरूनीने (स० १०८७) कन्नौजके चारों ओरके प्रदेशको मध्यदेश माना है । बनारसीदासजीका क्रीड़ा-क्षेत्र प्रायः आगरासे जौनपुर तक यू० पी० का प्रदेश रहा". अतएव इसे ही उनके द्वारा सूचित मध्यदेश माना जा सकता है । अर्ध-कथानकके व्याकरणकी रूपरेखा इस प्रकार हैवर्ण-इसमें देवनागरीके सभी स्वर पाये जाते हैं। विसर्गकी हिन्दीमें आवश्यकता ही नहीं पड़ती। 'ऋ' कहीं कहीं सुरक्षित पाया जाता है जैसे १ मनुस्मृति २, २१ । २ फाहियान (दे० पु० मा० पृ० ३०)।३ अलबेरनीका भारत, भा० १, पृ० १९८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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