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"मैं तो. यहाँतक कहूँगा कि हर एक आदमीको आत्मचरित लिखनेके लिए मजबूर करना चाहिए। अगर वह साहित्यिक ढङ्गके साथ न भी लिख सके तो भी कोई मुज़ायका नहीं। दर असल साहित्यिक कारीगरीकी इसमें जरूरत भी नहीं है। यदि कोई बेपढ़ा आदमी भी अपनी कष्ट-गाथाओं या आनन्द-भोगोंको बोलकर लिवा दे तो कोई बुरी चीज़ न बन पड़ेगी। बल्कि हमारा विश्वास है कि चतुराईसे भरे विवरणके शंकास्पद गुणके अभावमें उसकी अकृत्रिमता खासी मनोरंजक होगी। उसमें कमसे कम एक गुण तो अधिक मात्रामें होगा ही, यानी उसमें सत्यकी मात्रा अधिक होगी।"
चार आत्मचरित अभी तक जितने आत्मचरित इमने पढ़े हैं उनमें चार आत्मचरित हमें खास तौर पर महत्त्वपूर्ण अँचे हैं----प्रिन्स क्रोपाटकिनका, महात्मा गाँधीका, गोर्कीका
और स्टिफन विगका। मैमोइस आव ए रैवोल्यूशनिष्ट, सत्यके प्रयोग, मेरा बचपन, मेरे विश्वविद्यालय तथा दी वर्ल्ड आफ यस्टरडे, इन चार ग्रन्थोंका विश्व-साहित्यमें प्रमुख स्थान है । वैसे कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ, श्रद्धेय बाबू राजेन्द्रप्रसाद तथा पं० जवाहरलाल नेहरू के आत्मचरित भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं ! क्रोपाटकिनके
आत्मचरितका सारांश बहुत वर्ष पहले 'क्रान्तिकारी राजकुमार' नामसे स्वर्गीय प्यारेमोहन चतुर्वेदीने प्रकाशित कराया था पर अब वह अप्राप्य है।
अब उसका अनुवाद फिरसे कराया जा रहा है। पत्रकार शिरोमणि स्वर्गीय एच. डब्ल्यू. नविनसनका आत्मचरित भी जो तीन जिल्दोंमें छपा था, संसारके सर्वोत्कृष्ट आत्मचरितोंमें स्थान पावेगा। ज्विगके आत्मचरितका भी अनुवाद शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिए ।
अपनी पुस्तकको विगने इन शब्दोंके साथ समात किया है
"सूर्य पूर्ण और प्रबल रूपसे प्रकाशित था। मैं घर वापस जा रहा था कि मुझे अपनी छाया दीख पड़ी, उसी प्रकार जिस प्रकार कि वर्तमान युद्ध के पीछे दूसरे युद्धकी छाया मैंने देखी थी। यह छाया इतने वर्षों में मेरे साथ ही रही है, मुझसे दूर बिल्कुल नहीं गई और दिन रात मेरे प्रत्येक विचारके ऊपर वह मैंडराती रही है, बल्कि इस पुस्तकके कुछ पृष्ठोंपर भी उस छायाकी काली रेखा पाटकोको दृष्टिगोचर होगी, पर आखिर छायाका जन्म भी तो प्रकाशसे ही होता
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