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केवल मुक्तभोगी ही अनुमान कर सकते हैं दुःखके उस स्रोतका, जहाँसे थे पंक्तियाँ निकली थी -
नौ बालक हुए मुए, रहे नारे पर दोइ !
ज्यौं तरबर पतझार है, रहैं ठूठसे होइ ।। Inside out ( अन्तःकरणका प्रकटीकरण ) नामक पुस्तकके लेखकने संसारके ढाई सौ आत्मचरितीकर विश्लेषण करके उक्त पुस्तक लिली थी और अन्तमें वे इस परिणामपर पहुँचे थे कि सर्वश्रेष्ठ आत्मचरितों के लिए ती-1 गुण अत्यन्त आवश्यक है -- ( १) दे संक्षिप्त हो, (२) उनमें थोड़ेमें बहुत बात कही गई हो, (३) वे पक्षपातर हित हों।
अर्ध-कथानक इस कसौटी पर निस्म देह खरा उतरता है और यदि इसका अंग्रेजी अनुवाद की प्रकाशित हो तो हमें आश्चर्य न होगा।
कविवर बनारसीदासजी जानते थे कि आत्मचरित लिखते समय में कैसा असंभव काय हाथमें ले रहे हैं। उन्होंने कहा भी था कि एक जीवनी चौबीस घंटेमें जितनी भिन्न भिन्न दशाएँ होती हैं उन्हें केवली या सर्वज्ञ ही जान सकता है और वह भी ठीक ठीक तौरपर कह नहीं सकता । ----
एक जीवका एक दिन दसा होह जेतीक !
सो कहि न सके केवली, जानै जद्यपि ठीक ।। ६६० इसी भावको मार्क ट्वेन नामक एक अमरीकन लेखकने इन शब्दों में प्रकट किया था:
What a very little part of a person's life are his acts and his words ! His real life is led in his head and is known to none but himself! All day long and every day, the mill of his brain is grinding and his thoughts not those other things are his history. His acts and words are merely the visible thin crust of his world, with its scattered spow summits and its vacant wastes of water--and they are so trilling a part of his bulk-a mere skin enveloping it. The most of him is hidden-it and its volcanic fires that toss and boil and never rest, night nor day. These are
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