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________________ तक आप एक कचौड़ीवालेसे दुबक्ता कचौड़ियाँ खाते रहे थे। फिर एक दिन एकान्तमें आपने उससे कहा तुम उधार कीनी बहुत, आगे अब जिन देहु । मेरे पास किछू नहीं, दाम कहांसों लेहु ॥ ३४१ पर कचौड़ीवाला भला आदमी निकला और उसने उत्तर दिया--- कहै कचौरीबाल नर, जीस मपैया खाहु । तुमसौं कोउ न कछु कहै, जहां भावै तहां जाहु ॥ ३४५ आप निश्चिन्त होकर छै सात महीने तक दोनों वक्त नरपेट कचौड़ियाँ खाते रहे और फिर जब पैसे पास हुए तो चौदह रुपये देकर हिसाब भी साफ कर दिया। चूकि हम भी आगरे जिलेके ही रहनेवाले हैं, इसलिए हमें इस बातपर भव होना स्वाभाविक है कि हमारे यहाँ ऐसे दूरदर्शी श्रद्धालु कचौड़ीवाले विधमान् थे जो साहित्यसेवियोंको छै सात महीने तक जिनयतापूर्वक उधार दे सकते थे। कैसे परितापका विषय है कि कचौड़ीवालोंकी वह परम्परा अब विद्यमान नहीं, नहीं तो आजकलके महँगीके दिनोंमें वह आरेके साहित्यिकोंके लिए बड़ी लाभदायक सिद्ध होती। - कविवर बनारसीदासजी कई बार बेवकूफ बने थे और अपनी मूर्खताओंका उन्होंने बड़ा मनोहर वर्णन किया है। एक बार किसी धूते संन्यासीने आपको चकमा दिया कि अगर तुम अमुक मंत्रका जाप पूरे सालभर तक बिल्कुल गोपनीय ढंगसे पाखाने में बैठकर करोगे तो वर्ष बीतने पर घरके दर्वाजेपर एफ अशर्फी रोज मिला करेगी। आपने इस कल्पद्रुम मंत्रका जाप उस दुर्गन्धित वायुमंडलमें विधिवत् किया, पर स्वर्णमुद्रा तो क्या आपको कानी कौड़ी भी न मिली ! . बनारसीदासजीका आत्मचरित पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मानों हम कोई सिनेमा-फिल्म देख रहे हैं। पर आप चोरोंके ग्राममें लुटनेसे बचने के लिए तिलक लगाकर ब्राह्मण बनकर चोरोंक चौधरं को आशीर्वाद दे रहे हैं तो कहीं आप अपने साथी संगियोंकी चौकड़ीमें नंगे नाच रहे हैं या जूते-पैजारका खेल खेल रहे हैं। कुमती चारि मिले मन मेल । खेला पैजारका खेल ॥ सिरकी पाग लैहिं सब छीन । एक एकको मारहिं तीन ॥६०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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