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________________ हिन्दीका प्रथम आत्म-चरित सन् १६४१-- कोई तीन सौ वर्ष पहलेकी बात है। एक भावुक हिन्दी कविके मनमें नाना प्रकारके विचार उठ रहे थे। जीवनके अनेकों उतार चढ़ाव वे देख चुके थे। अनेक संकटोंमेंसे वे गुज़र चुके थे, कई बार बाल बाल बचे थे, कभी चोरों डाकुओंके हाथ जान-माल खोनेकी आशङ्का थी, तो कभी शूलीपर चढ़नेकी नौबत आनेवाली थी और कई बार भयंकर बीमारियोंसे वे मरणासन्न हो गये थे। गार्ह स्थिक दुर्घटनाओंका शिकार उन्हें कई बार होना पड़ा था, एकके बाद एक उनकी दो पत्नियोंकी मृत्यु हो चुकी थी और उनके नौ बच्चोंमेंसे एक भी जीवित नहीं रहा था! अपने जीवनमें उन्होंने अनेकों रंग देखे थे-तरह तरह के खेल खेले थे--कभी वे आशिकीके रंगमें सराबोर रहे तो कभी धार्मिकताकी धुन उनपर सवार थी और एक बार तो आध्यात्मिक फिटके वशीभूत होकर उन्होंने वर्षोंके परिश्रमसे लिखा अपना नवरसका ग्रन्थ गोमतीके हवाले कर दिया था ? तत्कालीन साहित्यिक जगत्में उन्हें पर्याप्त प्रतिष्ठा मिल चुकी थी और यदि किंवदन्तियोंपर विश्वास किया जाय तो उन्हें महाकवि तुलसीदासके सत्सङ्गका सौभाग्य ही प्रास नहीं हुआ था बल्कि उनसे यह सर्टीफिकेट भी मिला था कि आपकी कविता मुझे बहुत प्रिय लगी है। सुना है कि शाहजहाँ बादशाहके साथ शतरंज खेलनेका अवसर भी उन्हें प्रायः मिलता रहता था। संवत् १६९८ (सन् १६४१ ) में अपनी तृतीय पल्लीके साथ बैठे हुए और अपने चित्र-विचित्र जीवनपर दृष्टि डालते हुए यदि उन्हें किसी दिन आत्म-चरितका विचार सूक्षा हो तो उसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं।। नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोइ । ज्यौं तरवर पतझार है, रहैं हूँठसे होह ॥ ६४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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