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दीन इलाहीका प्रभाव अकबरकालीन बन-जीवनपर कितना पड़ा, यह कहना कठिन है । उसमें इस्लामके सिद्धान्तोंका अधिकतर प्रतिपादन होनेसे शायद वह हिंदुओं के हृदयको अधिक न छू सका, पर इसमें संदेह नहीं कि तत्कालीन गोष्ठियों और सैलियोंमें उनकी झलक अवश्य दीख पड़ती है । बनारसीदासने अपने गुणोंके बारेमें जैसे क्षमा, संतोष, मिष्टभाषण, सहनशीलता, इत्यादिका उल्लेख किया है वे दीन इलाहीमें भी पाये जाते हैं; तथा अध्यात्म-चिंतनमें दोनोंका विश्वास था । पर यह पता नहीं चलता कि उनकी अध्यात्म सैलीमें दाखिल होनेके क्या नियम थे अथवा उस गोष्ठीमें गुरुशिष्यसम्बन्ध प्रचलित था या नहीं । शायद गुरुशिष्यपरम्परा जैन सैलियोंमें न रही हो, पर काशीमें टोडरमल्लके पुत्र गोबरधन, धरू अथवा गिरधारी द्वारा स्थापित एक ऐसी गोष्ठीका पता चलता है जिसके गुरु स्वयं गोबरधन थे । इतिहाससे पता चलता है कि १५८५ से १५८९ के बीच गोवरधन जौनपुर में थे । जौनपुर में रहते हुए उन्हें बनारस आनेके बहुत से मौके पड़ते रहे होंगे और टोडरमलके नामसे जो मन्दिर या बावलियाँ बनारस में बनीं उन्हें गोबरधनने ही बनवाया होगा । सन् १५८५ और १५८९ के बीच विश्वेश्वरकी पूजाके उपलक्ष्य में शेषकृष्णद्वारा लिखित कंसवध नाटकका अभिनय हुआ और इस अभिनयमें गोवरधन स्वयं उपस्थित थे | अभिनयके आरम्भके निम्नलिखित श्लोकसे गोवरधनके बारेमें कुछ पता चलता है :
तस्यास्ति तंडनकुलामलमंडनस्य, श्रीतोड रक्षितिपतेस्तनयो नयज्ञः । नानाकलाकुल गृहं सविदग्धगोष्ठीम्, एकोऽधितिष्ठति गुरुर्गिरिधारि नामा ।
इस श्लोक से पता चलता है कि गुरु गिरिधारी राजा टोडरमलके पुत्र थे तथा नाना कलाओंसे भरी विदग्ध गोष्ठी के वे गुरु थे । इस श्लोक में आए गिरिधारीसे कुछ विद्वानोंने वल्लभाचार्यके पौत्र गिरधारीका अर्थ लिया है और उन्हें गोवरधनका गुरु मान लिया है । पर गोवरधन और गिरधारी एक थे, इसमें संदेह नहीं । इस प्रसंग में बनारसकी एक प्रसिद्ध लोकोक्ति ' सबके गुरु गोवरधनदास ' की ओर बरबस ध्यान आकृष्ट होता है जिसका अर्थ होता है कि
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