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कपड़ेका काम दूसरेको सुपुर्द करके यात्रापर चल निकले। यात्रियोंकी पूरी जमातमें उन्नीस आदमी हो गये, जिसमें मथुरावासी दो ब्राह्मण भी थे। घाटमपुरके पास कोररा ग्राममें बनारसीदास सरायमें उतर गए और दोनों ब्राह्मण किसी अहीरके घर जा पहुंचे। एक ब्राह्मण देवता बाजार पहुँचे और एक रुपया भुना कर खाने पीनेका सामान खरीद कर डेरेपर वापिस लौटे । इतनेमें जिस सराफके यहाँ उसने रुपया भुनाया था वह वहाँ पहुँचा और रुपया खोटा कहकर उसे
लौटा लेनेको कहा। इस बातको लेकर दोनोंमें तू तू मैं मैं हो गई और मथुरिया • ब्राह्मणने सराफको पीट दिया। इसी बीच सराफका भाई आगया। उसने ब्राह्मणोंके सब रुपये जाली ठहराए और उनके गाँठबँधे रुपए घर ले जाकर नकली रुपयोंसे बदलकर कोतवालसे फरियाद कर दी। कोतवाल हाकिमकी आज्ञासे दीवानके साथ कोरराकी सरायमें पहुँचा और चार आदमियोंके सामने उनके बयान लिए । कोतवालने उनकी गिरफ्तारीका हुक्म दिया जो सबेरे तकके लिए रोक ली गई। किसी तरह रात बीती पर सबेरे ही कोतवालके प्यादे उन्नीस सूलियाँ लेकर आ धमके और कहा कि वे सूलियाँ उनके ही लिए हैं। बनारसीदास और उनके साथी पासके एक गाँवके साहूकारकी जमानत देकर किसी तरह बच गए। पहर भर दिन चढ़ने पर बनारसीदासने छह सात सेर फुलेल लेकर हाकिमोंकी भेंट की और सराफको सजा देनेकी माँग की, पर पता चला कि वह तो चपत हो चुका था। रास्तेमें अपने मित्र नरोत्तमदासकी मृत्युका समाचार सुन कर वे बड़े दुखी हुए। दया करके उन्होंने ब्राह्मणों को उनके खोये रुपए भी दे दिए । आगरेमें उनके साहूजी ऐश आराममें इतने फँसे थे कि उन्हें हिसाब करनेकी फुरसत ही नहीं थी। किसी तरह एक मित्रकी सहायतासे मामला निपट गया और साझा अलग हो गया । यही बनारसीदासकी व्यापारीके नाते अंतिम यात्रा थी । इसके बाद लगता है कि धीरे धीरे उनकी आध्यात्मिक उन्नतिके साथ व्यापारका सिलसिला कम हो चला।
प्रेमीजीने बनारसीदासके अध्यात्म मतके बारेमें उपलब्ध सामग्रीका विधिपूर्वक विश्लेषण किया है और उनके आत्मिक विकासपर भी प्रकाश डाला है। उस समय आगरेमें अध्यात्मियोंकी एक सैली या गोष्ठी थी जिसमें रातदिन परमार्थका चिन्तन होता था। बनारसीदास इन अध्यात्मियों में एक प्रमुख स्थान पा गये । बादमें राजस्थान में अध्यात्मियोंकी और सैलियाँ बन गई। अब प्रश्न उठता है कि
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