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________________ २४ किसी तरह रोजगार चल निकला । दो बरस बाद खैराबाद लौटनेकी सूझी और सब चीजें बेंच-बाँचकर उन्होंने कर्ज चुका दिया। इस तरह व्यापारका पहला दौर सन् १६१३ में समाप्त हो गया। __एक दिन किस्मत खुली, रास्तेमें मोतियोंकी एक गठरी मिल गई। उससे एक तावीज बनवाया और व्यापारके लिए पूरबकी ओर चल पड़े। रास्तेमें अपनी ससुरालमें ठहरे और उनकी दुरवस्था जानकर उनकी पत्नी और सासने सहानुभूतिपूर्वक उनकी मदद की । बनारसीदासकी अवस्था कुछ सुधरी, धुले कपड़े और जवाहरात इकट्ठे किए और आगरे पहुँचे । वहाँ परवेबके कटरेमें ससुरकी दूकानमें भोजन करते थे, रातमें कोठीमें पड़ रहते थे। किस्मतके खोटे थे, कपड़ेके दाममें मद्दी आगई पर जवाहरातके रोजगारमें कुछ फायदा हुआ। कुछ दिन मित्रोंके साथ हँसी खुशीमें बीता, पर व्यापारी थे, रुपए तो कमाने ही थे । दो मित्रोंके साथ पटना जानेके लिए निकल पड़े। सहजादपुर तक तो रथमें गए, पर वहाँ एक बोझिया कर लिया और सरायमें ठहर गए । अभाग्यवश डेढ़ पहर रात बीते लहलहाती चाँदनीमें सबेरा हुआ जानकर वे तीनों बोझियेके सिर माल लदाकर चल निकले पर रास्ता भूल जानेसे जंगलमें जा फँसे । बोझिया तो रो-कलप कर बोझा फेंक चंपत हुआ। अब तीनों मित्रोंको स्वयं बोझा लादना पड़ा और वे रोते रोते आगे बढ़े। यहीं उनकी विपत्तिका अंत नहीं हुआ। वे एक चोरोंके गाँवके पास जा पहुंचे। एक आदमी द्वारा अपना परिचय पूछे जाने पर उनकी जान सूख गई । बनारसीदासने ब्राह्मण बननेका बहाना करके उसे असीसा और उसने उन्हें अपने चौधरीकी चौपालमें ठहरनेको कहा, पर भयके मारे उनकी बुरी दशा थी। जान बचानेके लिए उन्होंने कपड़ोंसे सूत काढ़कर जनेऊ बना कर पहने और मिट्टीसे टीके लगाकर पूरे ब्राह्मण बन गए । चौधरी आ धमके और बनारसीदास और उनके साथियोंको ब्राह्मण जानकर सीस नवाया और उन्हें फतहपुरका रास्ता बतला दिया। इस तरह वे इलाहाबाद पहुंचे। यों तो बनारसीदासका व्यापार चलता ही रहा, पर सन् १६१६ में अपने पिताकी मृत्युके बाद उन्होंने फिर व्यापार करनेकी सोची । पाँच सौकी हुंडी लिखकर कपड़ा खरीदा, पर इसी बीच आगरेसे लेखा चुकानेके लिए सेठ सबलसिंहका पत्र आगया और बनारसीदास अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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