________________ आतम अनुभव रसभरी, तामैं और न भावै / आनंदघन सो जानिए, परमानंद गावै // रे घ० सं० 1693 में बनारसीदासने नाटक समयसारमें अपने पाँच साथियों से रूपचन्दजीको एक बतलाया है, अर्थात् उस समय वे जीवित थे, परन्तु पं. हीरानन्दने अपने समवसरणविधानमें आगरेके ज्ञाताओंके जो नाम दिये हैं उनमें भगवतीदास, हेमराज, जगजीवनके नाम तो हैं, परन्तु रूपचन्दका नाम नहीं है और यह विधान संवत् 1701 में रचा गया है / इससे संभव है कि रूपचन्दजी उस समय नहीं रहे हों। __रूपचन्दजीने आनन्दघनका एक पद संग्रह किया है, इससे अनुमान किया जा सकता है कि वे उनके पूर्ववर्ती हैं और कँवरपाल अपने पहले गुटकेमें सं० 1684 के लगभग आनन्दधनके 65 पदोंका संग्रह कर सकते हैं। यशोविजयजी और आनन्दधनका साक्षात्कार होनेकी बात इससे भी सन्देहास्पद हो जाती है। राज या राजसमुद्र भी रूपचन्द्र के पूर्ववर्ती हैं। इनकी उपदेशयत्तीसी दूसरे गुटकेमें संग्रहीत है। १३-भ० नरेन्द्रकीर्तिका समय भूमिकाके पृष्ठ 49-53 में आमेरके भट्टारक नरेन्द्रकीर्तिका जिक्र है जिनके समयमें तेरापंथकी उत्पत्ति हुई। वखतरामजीने संवत् 1773 और चन्द्रकविने संवत् 1675 उत्पत्तिकाल बतलाया है / पर दोनोंने ही अमरा भौसाके पुत्र जोधराज गोदीकाको सभासे निकाल देनेकी बात लिखी है और जोधराज गोदीकाने अपने दो ग्रन्थ - सम्यक् वकौमुदी और प्रवचनसार-सं० 1724 और 1726 में लिखे हैं, साथ ही तेरापन्थका भी उल्लेख किया है, इसलिए भट्टारक नरेन्द्रकीर्तिका समय भी लगभग यही होना चाहिए। अभी वीरवाणी वर्ष 7 अंक 14-15 में प्रकाशित हुए श्री अन्नूपचन्दजी न्यायतीर्थके लेख (जयपुरके जैनमन्दिरोंके मूर्ति एवं यन्त्रलेख) पर मेरी दृष्टि पड़ी और उससे भ० नरेन्द्रकीर्तिका समय निश्चित हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org