________________ 119 बदलिया, बिहोलिया, ताँबी, मोठिया, और सिंधड़ गोत्रके श्रीमालोंका उल्लेख किया गया है। श्रीमाल धनी और सम्पन्न जाति है। गुजरात और बम्बई प्रान्तमें इसकी आगदी अधिक है। राजपूतानेमें श्रीमाल वैश्योंके अतिरिक्त श्रीमाल ब्राह्मण और श्रीपाल सुनार भी हैं / वैश्योंमें बैन और वैष्णव श्रीमाल दोनों हैं / जैनोंमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी ही अधिक हैं। खानदेशके धरणगाँव और पंजाबके मुलतान आदि स्थानोंमें श्रीमालोंके कुछ घर दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी भी रहे हैं। गुजरात और बम्बई प्रान्तके श्रीमालोम किसी भी गोत्रका अस्तित्व नहीं है / इस विषयमें एक कहावत प्रसिद्ध है कि “गुजरातमें गोत नहीं, और मारबाड़में छोत (छूत ) नहीं।" यहाँ ओसवाल पोरवाड़ आदि जातियोंमें भी गोत्र नहीं है / अपने अपने धन्धोंसे ही वे अपना परिचय देते हैं, जैसे घिया (घीवाले) दोसी ( दूष्य या कपड़ेके व्यापारी) नाणावटी (नाणा या सिक्केके व्यापारी सराफ ), जवेरी (जौहरी) आदि / परन्तु बनारसीदाराजीने आगरा, जौनपुर, खैराबाद आदिके श्रीमालोंका उल्लेख गोत्रसहित किया है / जान पड़ता है ये लोग वहाँ पहलेसे बसे हुए होंगे और मारबाड़की ओरसे उस और गये होंगे जहाँ कि नामके साथ गोत्र अवश्य रहता है। जहाँ तक हम जानते हैं वैश्योंकी वर्तमान जातियाँ दसवीं शताब्दिसे पहलेकी नहीं हैं। श्रीमाल जातिका भी कोई उल्लेख इससे पहलेका नहीं मिलता। सतयुग द्वापर या त्रेतामें जातियों की उत्पत्तिसम्बन्धी कथाओंमें कोई ऐतिहासिकता नहीं है। __ बनारसीदासजीके बस्ता या वस्तुपाल, जेठू या जेठमल्ल, मूलदास, पर्वत, कुँअरजी, अरथमल आदि पूर्व पुरुषोंके नाम और छजमल, घनमल, चापसी, जसा, धरमती आदि रिश्तेदार के नामोंसे भी श्रीमाल वंशकी उत्पत्ति पंजाब में नहीं, भिन्नमालमें ही ठीक बैठती है। बादशाहों, सूबेदारों, नवाबोंके कारबारम सहायक होनेसे यह जाति उत्तर भारत, बिहार, बंगाल तक फैल गई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org