________________ 117 नहीं होता कि यशोविजय उपाध्याय जैसे प्रतिष्ठाप्राप्त श्वेताम्बर साधु उनकी प्रशंसा करें या उनसे मिलें। ___ श्रीअगरचन्द नाहटाके पहले गुटकेमें आनन्दघनजीके 65 पद लिखे हुए हैं। और यह गुटका बनारसीदासजीके साथी कुंवरपाल चोरडियाने सं० 1684-85 में अपने पढ़नेके लिए लिखा था। इससे मालूम होता है कि उनकी रचना 1684 से काफी पहले हो चुकी थी और उनकी प्रसिद्धि हो जानेपर ही अध्यातमी कुँवरपालने उनकी प्रतिलिपि की होगी। इस लिए समय पर विवार करनेसे भी यशोविजयजीके साथ आनन्दघनके साक्षात्कार होनेकी बातमें सन्देह होता है। यशोविजयजीके जन्म-कालका तो ठीक पता नहीं / परन्तु वह सं० 1680 के लगभग अनुमान किया जाता है और 1688 में उन्हें दीक्षा दी गई थी। कान्तिविजय गणिकी 'सुजलबेलि भास 'के अनुसार सं० 1699 में अहमदाबादमें उन्होंने अष्टावधान किये थे और तभी उनकी योग्यता देखकर विधाध्ययनके लिए किसी धनीके द्वारा बनारस भेजनेका विचार किया गया था / अर्थात् उनके जन्म-काल और दीक्षाकालके पहले ही आनन्दघनके पद रचे जा चुके थे। श्रीनाहटाजी और कुछ दूसरे लेखकोंने बतलाया है कि आनन्दघनका मूल नाम लाभानन्द था और वे खरतर गच्छके साधु थे। जैसा कि अन्यत्र बतलाया गया है खरतरगच्छके अनेक साधु अध्यातमी हुए हैं / कुँवरपालने अपने गुटकोंमें अध्यातमी कवियोंकी-बनारसीदास रूपचन्द, ज्ञानानन्द, कबीर, सूरदास आदिकी रचनायें संग्रह की हैं और उनकी इसी रुचिका परिचय आनन्दघनके पदोंसे मिलता है। सो आनन्दघन बनारसीदासजीसे कुछ पहलेके अध्यातमी ही जान पड़ते हैं। 1-- इस गुटके में आनन्दघनके पदोंके बाद द्रव्यसंग्रह, नयचक्र आदि लिखे हुए हैं। नाहटाजी बतलाते हैं कि उन पदोंकी लिपि और आगेकी लिपिमें कुछ भिन्नता है। फिर भी वे पद इस गुट केके प्रारम्भमें ही लिखे हुए हैं। इससे पीछेके लिखे हुए नहीं जान पड़ते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org