________________ 116 इसमें स्पष्ट कहा है कि जो आनन्दधन. आत्माका ध्यान करता है वही आनन्द पाता है और सहज संतोषसे आनन्द गुण प्रकट होता है। उसके प्रकट होते ही आनन्दघन आत्माकी प्राप्ति होती है और अन्तर्योति जग जाती है। पाँचवें पदमें कहा है, " आनंद कोउ हमें दिखलावै / कहाँ ढूँढ़त तू मूरख पंथी, आनंद हाट न बिकावै.” अर्थात् यह आनन्द या आनन्दघन बाजारमें नहीं मिलता है, जो तू उसे ढूँढ़ता फिरता है। - ब्रजके भक्त कवियोंने आनन्दधन या धनआन द शब्दका व्यवहार अपने इष्टदेव श्रीकृष्णके लिए किया है / आनन्दधनने भी आनन्दघन आत्माके सिवाय कहीं कहीं अपने इष्ट परमात्माके लिए किया है और चिदानन्द आत्माके लिए तो प्रायः ही किया है - "आनन्दघन प्रभु दास तिहारौ, जनम जनमके सेन // " पद 17 "आनंदधन प्रभुके घरद्वार, रहन करूँ गुणधामा // " पद 26 "आनंदघन चेतनमय मूरति, सेवक जन बलि जाही॥” 29 / " आनंदघन प्रभु बाहड़ी झाले, बाजी सधली पालै // " 48 सो पूर्वोक्त 'आनन्द' या 'आनन्दघनसे मिले 'जैसे शब्दोंसे किसी आनन्दधन नामक महात्मासे मिलनेका अनुमान करना कष्ट-कल्पना ही मालूम होती है। यदि यशोविजयजी उनसे मिले होते तो इन शब्दोंके साथ कुछ और स्पष्ट संकेत दे सकते थे। यशोविजयजीके लिखे हुए बीसों ग्रन्थ है उनमें भी तो वे कहीं न कहीं उल्लख कर सकते थे। आनन्दघनके पदोंसे और उनके सम्बन्धमें प्रचलित जनश्रुतियोंसे मालूम होता है कि वे अध्यातमी सन्त थे और यशोविजयजीकी अध्यालियोंके प्रति सद्भावना नहीं थी। उन्होंने ' अध्यात्ममतपरीक्षा' और 'अध्यात्ममतखण्डन' नामके दो ग्रन्थ अध्यात्मियोंके विरोधमें ही लिखे हैं। आनन्दघनकी वाणी सन्त कवियों जैसी लाग-लपेटसे रहित है / यद्यपि वे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें दीक्षित साधु थे, परन्तु कहा जाता है कि वे लोकसंसर्ग छोड़कर निर्जन स्थानोंमें पड़े रहते थे और परम्परागत साध्वाचारकी कोई परवा न करते थे। साधु और श्रावकों द्वारा वे उपेक्षित थे। इससे भी इस बातपर विश्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org