________________ बनाये। इनमें मुलतानके वर्धमान, मीठू, सुखानन्द, नेमिदास, धर्मदास, शान्तिदासका उल्लेख है-“अध्यातम सैली मन लाइ, सुखानन्द सुखदाइजी।" ए श्रावक आदरकरी जोडावी चौपई सारी रे / __ अध्यातम पंडित सुधी ते, थापे यहाँ अधिकारी रे // मुनि देवचन्दने मुलतानके भणसाली मिट्टमल्लके आग्रहसे ज्ञानार्णव (शुभचन्द्र) के अनुसार ध्यानदीपिका चौपाईकी रचना सं० 1766 में की। उन्होंने यहाँके श्रावकोंको अध्यातम-श्रद्धाधारी और मिट्ठमल्लको आतमसूरजध्याता कहा है।' बर्धमानने यद्यपि अपना ग्रन्थ 1746 में बनाया है, अर्थात् बनारसीदासजीकी मृत्युके 45 वर्ष बाद, परन्तु उनके 'बनारसी सुपसाय ले, 'बानारसी प्रसादतें, 'घरमाचारज.धरम गुरु श्रीबनारसीदास' आदि वाक्योंसे ऐसा मालूम होता है कि उनका बनारसीदाससे शायद साक्षात्कार भी हुआ हो। और धर्मगुरु धर्माचार्य तो वे माने ही जाने लगे थे / 1722 में सुमतिरंगने प्रबोधचिन्तामणिमें नवलखा वर्धमानका उल्लेख किया है / तब उससे पहले भी उनका रहना सम्भव है। हीरानन्द मुकीम ये ओसवाल वंशके थे और अरडक सोनी इनका गोत्र था। इनके पितामहका रनाम साह पूना और पिताका नाम कान्हड़ था / अर्धकथानकके अनुसार इन्होंने चैत्र सुदी 2 संवत् 1661 को प्रयागमे सम्मेदशिखरकी यात्राके लिए संघ निकाला था और बनारसीदासके पिता खरगसेन इनकी चिट्ठी आनेपर संघमें जाकर शामिल हो गये थे। यात्रासे लौटते समय लोगोंके अनुरोध पर हीरानन्दने जौनपुर में चार दिनके लिए मुकाम भी किया था। संघसे लौटनेवाले सम्मेद शिखरके पानीके प्रभावसे बहुतसे यात्री मर गये / खरगसेन भी पटना आकर बीमार हो गये और उन्होंने बहुत दुख पाया। - इस यात्राका विवरण खरतरगच्छके तेजसारके शिष्य वीरविजय मुनिने अपनी १-देखिए, 'मुलतानके श्रावकोंका अध्यात्म-प्रेम' नामक लेख / जैन सिद्धान्तभास्कर भाग 13, किरण 1 २-अर्धकथानक 223-243 पद्य / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org