________________ 109 घरमाचारिज धरमगुरु, श्रीवणारसीदास / जासु प्रसादै मैं लह्यौ, आतम निजपदबास // 1 बंदू हूं श्री सिद्धगण, परमदेव उतकिष्ट / अरिहंत आदि ले च्यार गुरु, भविकमांहि ए शिष्ट // 2 परंपरा ए ग्यानकी, कुंदकुंद मुनिराज / अमृतचंद्र राजमल्लजी, सबहूंके सिरताज / / 3 ग्रंथ दिगंबरकै भलै, भेष (1) सेतांबर चाल / अनेकांत समझ भला, सो ग्याताकी चाल / / 4 स्याद्वाद जिनके बचन, जो जानै सो जान / निश्चै व्यवहारी आत्मा, अनेकांत परमांन / / 5 आगे गद्य इस प्रकार है ___“अथ चतुर्विधसंघस्थापना लिख्यते / साध्वी 1, श्रावक 2, श्राविका 3, अंबरसहित जाणवा / जघन्ये साध लज्या जीत न सकै तिणवारते स्वेतांबर होवै / साधवी पण निस्संकिता अंगरै वास्ते स्वेतांबर होवै / उतकृष्टा मुनीस्वर 6 गुणठाणे आदि ले केवली भगवंत सीम दिगंबर परम दिगंबर होवै / परम दिगंबर छै तिको मोक्ष साधनरो अंग छै / भावकर्म 1, द्रव्यकर्म 2, नोकर्म 3 री त्यागभावना भावै / मेष भावै जिसौ हुवै / परम दिगंबर मोक्ष साधै / दिंगबर मुनीस्वर ओलखवारो लिंग जाणवौ / इतरी चौथे आरेरी बात लिखी छै / जिआं मुनीस्वरांरा संधयण सबला हुता ताहिवै पांचमा आरारी वार्ता लिख्यते / " पत्र 30 में ये दो दोहे हैं - जिनधरमी कुलसेहरो, श्रीमालां सिणगार / बाणारसी बहोलिया, भविक जीव उद्धार || 1 बाणारसी प्रसादतै, पायो स्यांन विग्यांन / जग सब मिथ्या जाण करि, पायौ निज स्वथान // 2 पत्र 76 के अन्तमें बाणारसी सुपसाय ले, लाधो भेद विग्यांन / परगुण आस्या छंडिके, लीजै सिवको थान // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org