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________________ 102 कुँवरपालके हाथके लिखे हुए गुटकेकी कई रचनाओंके नीचे उनके लिखमेका संवत् 1684 और 85 दिया हुआ है और पांडे हेमराजजीने प्रवचनसार टीका सं० 1709 में उनकी प्रेरणासे ही बनाई थी। उसके बाद वे और कब तक जीवित रहे, इसका पता नहीं। ___ पहले गुटकेमें चौबीस ठाणाके लिख चुकनेके बाद उन्होंने अपनी दो कविता और दी हैं जिनमें अपना उपनाम 'चेतन कंवर' दिया है बंदी जिनप्रतिमा दुखहरणी / आरंभ उदौ देख मति भूलो, ए निज सुधकी धरणी // वन्दो० // बीतरागपदकू दरसावइ, मुक्ति पंथकी करणी। सभ्यगदिष्टी नितप्रति ध्यावइ, मिथ्यामतकी टरणी // 1 // गुणश्रेणी जे कही एकदस, आतम अमरित झरणी / तिणको कारण मूल जाणजिइ, खिपक भावकी वरणी // 2 // रतनागर चउबीसी अरिहत, गुगनिध सुण अघ चरणी। चेतन कवर यहै लिव लागी, सुमति भई जब घरणी // इति // जाणी जाणे भेव वीतराग पदको कही / मूढ न जाणे जेह, जिनठवणा बेदें नही // 1 // जिनप्रतिमा जिनसम लेखीयइ, ताको निमित पाय उर अंतर, राग दोष नहि देखीयइ / जिन प्र० // 1 // सम्यगदिष्टी होह जीव जे, तिण मन ए मति रेखीयइ / यहु दरसन जावू न सुहाइ, मिथ्यामत भेखीयइ / जि०॥ 2 // चितवत चित चेतना चतुर नर, नयन मेष न मेखीयइ उपशम कृया ऊपजी अनुपम, कर्म कटइ जे सेखीयइ // 3 // वीतराग कारण जिण भावन, ठवणा तिण ही पेखीयइ / चेतन कवर भयै निज परिणति, पाप पुन्न दुइ लेखीयइ // कुँवरपालजी अध्यातमी मित्रोंमें प्रधान थे और कवि भी / इससे आशा है, आगरा आदिके भण्डारों में उनकी और भी रचनायें मिलेंगी। संवत् 168485 में वे आगरेमें थे और 1709 में भी, जब प्रवचसारटीकाकी रचना हुई है। जान पड़ता है जैसलमेर में भी वे रहे हैं। शायद वह उनका मूल स्थान होगा और वहाँ आते जाते रहते होंगे। जैसलमेरमें भी संवत् 1704 में गजकुशल गणिने उनके पढ़नेके लिए संग्रहिणीसूत्र लिखा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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