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एकाएक मृत्यु हो गई। चारों ओर शोर मच गया और बेचारे खरगसेन जान बचाकर पुनः जौनपुर लौट आए । पुनः वे १५६९ में आगरेमें अपने चाचाके सीरमें सराफी करने लगे। बाईस वर्षकी अवस्था में उनका विवाह हुआ और चाचीसे न बनने पर अलग रहने लगे । चाचा-चाचीकी मृत्युके बाद पंचनामेंसे प्राप्त सब धन अपनी चचेरी बहनके ब्याहमें खर्च कर जौनपुर लौट आये और रामदास अग्रवालके साझेमें सराफीका काम आरंभ करके मोती
और मानिकके चुनीका व्यापार करने लगे। १५७६ में पुत्रजन्मके लिए सतीकी जात पर रोहतक गए, पर रास्तेमें ही लुट गए।
१५८६ में बनारसीदासजीका जन्म हुआ। आठ वर्षकी उमरमें वे चटसाल भेजे गए और एक बरसमें अक्षराभ्यास हो गया। बारहवें वर्ष (१५९७)में उनका विवाह हो गया। उसी साल जौनपुरके जौहरियोंपर बड़ी विपत्ति गुजरी जो मध्यकालमें बहुधा व्यापारियोंपर गुजरती थी। जौनपुरके हाकिम चीन कुलीचने कोई गहरी भेट न पाने पर जौहरियोंको पकड़ कर कोड़े लगवाए और अपनी रक्षाके लिए वे सब भागे। खरगसेन रोते विलखते अँधेरी बरसाती रातमें सहजादपुर पहुंचे। किस्मत अच्छी थी, करमचंद बनिएने उनकी आव-भगत की और परिवारके रहनेकी व्यवस्था कर दी। घरमें कलसे और माट, चादर, सौर, दुलाई, खाट, अन्नसे भरा एक कोठार और भोजनके अनेक पदार्थ थे। मरतेको
और क्या चाहिए था। दस मास वहाँ रहकर खरगसेन इलाहाबाद व्यापारको गए और बनिकपुत्र बनारसीदास सहजादपुरमें ही रहकर कौड़ियाँ बेचकर एक दो टके पैदा करके दादीको देने लगे। बेचारी दादीने पोतेकी पहिली कमाईसे नुकतीके लड्डू और सीरनी बाँटी और सतीकी जात मानी। कुछ ही दिनोंके बाद खरगसेनके आदेशानुसार बनारसीदास दो डोलियाँ और चार मजदूर लेकर सकुटुंब फतेहपुर पहुंचे और वहाँ कुछ दिन रहकर अपने पिताके साथ इलाहाबादमे लेना-देना तथा रेहन-उधारका काम करने लगे। बादमें खबर आनेपर वि किलीच आगरे वापिस चला गया सन् १५९९ में सब जौहरी जौनपुर लौर आए। पर उनकी विपत्तिका अंत नहीं था। १६०० में लघु किलीचको अकबरकः हुक्म आया कि वह सलीमको कोल्हूबन शिकार खेलनेसे रोके । अपने बादशाहका हुक्म मानकर चीन किलीचने गढ़बंदी कर ली। रास्ते बंद कर दिए गए, गोमती पार करनेसे नावें रोक दी गई, पुलपरके दरवाजे बंद कर दिए गए । पैदल और
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