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कर लिया और माल भी ले लिया। माता पुत्र अशरण हो गये और अनेक कष्ट उठाते हुए पूरबमें जौनपुरकी ओर चल दिये।
उस युगमें भी जौनपुर एक बड़ा शहर था। बनारसीदासके अनुसार गोमतीके तटपर बसे इस नगरमें चारों वर्णके लोग बसते थे तथा उसमें अनेक तरहकी दस्तकारीके काम होते थे। शीशा बनानेवाले, दरजी, तंबोली, रंगरेज, ग्वाले, बढ़ई, संगतरास, तेली, धोबी, धुनियाँ, हलवाई, कहार, काछी, कलाल, कुम्हार, माली, कुंदीगर, कागदी, किसान, बुनकर, चितेरे, मोती आदि बींधनेवाले, बारी, लखेरे, ठठेरे, पेसराज, पटुवा, छप्पर बाँधनेवाले, नाई, भड़भूजे, सुनार, लुहार, सिकलीगर, हवाईगर (आतिशबाजी बनानेवाले), धीवर, और चमार वहाँ रहते थे। नगर मठ, मंडप और प्रासादों तथा पताकाओं और तंबुओंसे युक्त सतखंडे घरोंसे भरा था। नगरके चारों ओर बावन सराएँ थीं
और बावन बाजार । अगर कविसुलभ अतिशयोक्ति दूर कर दी जाय तो १६ वीं सदीके जौनपुरका रूप हमारे सामने खड़ा हो जाता है।
खरगसेन अपनी माताके साथ १५५६ में हीरा और लालके व्यापारी अपने जौहरी मामा मदनसिंह श्रीमालके यहाँ पहुँचे और उन्होंने उनकी बड़ी आवभगत की । जब खरगसेन आठ बरसके हुए तो वे पढ़ने के लिए चटसाल भेजे गए जहाँ उनकी एक व्यापारीके बेटेकी तरह शिक्षा हुई । वे सोने चाँदीक सिक्के परखने लगे, घरमें रेहनका हिसाब रखने लगे और जमाका हिसाब ? । वे लेने-देनेका हिसाब विधिपूर्वक रखने लगे और हाटमें बैठकर सराफेके काम सीखने लगे। आजसे कुछ दिन पहले भी एक व्यापारी बालककी शिक्षाका यही क्रम था, और कुछ पुराने शहरोंमें तो यह प्रथा अब भी चली आती है यद्यपि नोट चल जानेसे रुपए परखनेकी कला अब समाप्तप्राय है । पर व्यापारीकी शिक्षा घूमघाम कर बिना किस्मत लड़ाए पूरी नहीं मानी जाती थी। चार बरसबाद खरगसेन बंगाल पहुंचे और वहाँ सुलेमानके साले लोदीखों के दीवान धन्ना श्रीमालके एक पोतदार बन गए। वह सब पोतदारोंका विश्वास करता था और बिना लेखा जाँचे फारकती लिख देता था। खरगसेनके जिम्मे चार परगने थे
और वे दो कारकुनोंकी मदद से तहसील वसूल करते थे और लोदीखाँके पास खजाना भेज देते थे। पर उनके दुर्भाग्यने उनका पीछा न छोड़ा । धन्नाकी
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