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इत्यादिका वर्णन किया है। बाजारकी गप्पोंपर आधारित उनका इतिहासका ज्ञान भी अधूरा होता था । पर भारतीय पथोंके बारेमें उनका ज्ञान अधिक बढ़ा चढ़ा था। अपने यात्रा- विवरणोंमें उन्होंने सड़कों के बारेमें अपने अनुभव लिखे हैं । उनमें सड़कों के नाम, उनपर पड़नेवाले पड़ाव, मिलनेवाले आदमी, दर्शनीय वस्तुएँ, आराम और कष्ट सभी बातें आ जाती हैं । उन दिनों सवारियाँ तेज नहीं थीं तथा सड़कों पर ठहरनेके ठिकाने भी ठीक न थे तथा यूरोपीय यात्रियोंको बन्दरगाहोंकी शुल्क- शालाओं पर भी भारी तकलीफें उठानी पड़ती थीं । खाने पीने और ठहरने की भी असुविधाओं का सामना करना पड़ता था। आगरासे लाहोर तक चलनेवाली सड़क काफी अच्छी हालत में थी पर दूसरी सड़कोंकी हालत अच्छी न थी । जंगलोंसे होकर गुजरनेवाली सड़कों पर तो बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था । रक्षाके लिए काफिले रक्षकोंकी देखरेखमें चलते थे । बीच बीच में व्यापारी सुरक्षाके लिए इन काफिलोंके साथ हो लेते थे जिससे काफिले बहुत बड़े हो जाते थे। रास्तेमें चोर डाकुओंका भय बना रहता था तथा सुदूर प्रान्तों में छोटे मोटे सामन्त और जमींदार काफिलोंसे कर वसूल करनेमें न चूकते थे । इन सब कठिनाइयोंके होते हुए भी ग्रामीण और नागरिकों का काफिलोंके प्रति व्यवहार अच्छा होता था पर कभी कभी उनसे तनातनी हो जानेपर काफिलोको हुज्जत तकरारका भी सामना करना पड़ता था ।
अर्धकथानक में बनारसीदासने तत्कालीन सड़कों और व्यापारियों की कठिनाइयोंका जो वर्णन दिया है उससे युरोपियन यात्रियोंकी बातोंकी पुष्टि होती है । इतना ही नहीं, अर्धकथानक में भारतीय व्यापारियोंकी शिक्षा, लेन देन, व्यापारपद्धति इत्यादिके भी ऐसे अनुभूत विवरण हैं जिनका पता सत्रहवीं सदी के भारतीय साहित्य में मुश्किलसे मिलता है। बनारसीदासके व्यापारी परिवारका इतिहास उनके दादा मुलासे प्रारम्भ होता है । ने हिन्दी और फारसी पढ़े थे । वणिक वृत्तिके लिए वे मुगलों के मोदी वनकर मालवेमें आए और वहाँ नरवरके मुगलकी जागीरदारीमें उसके मालसे उधार देनेका काम करने लगे । सन् १५५१ में बनारसी - दासके पिता खरसेनका जन्म हुआ। कुछ दिनों बाद पिताकी मृत्यु हो गई और खरगसेनको एक नई आफतका सामना करना पड़ा। मुगलने जैसे ही यह समाचार सुना उसने तत्कालीन प्रथाके अनुसार मूलदासके घरपर मुहर छाप लगा कर कब्जा
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