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________________ इसलिए यह सोचा जा सकता है कि उनमें कलोरला अधिक मात्रामें रही होगी पर उनके आत्मचरितसे यह बात साफ झलकती है कि मृदुता उनमें कूट कूट कर भरी थी। अकबरकी मृत्युके समाचारसे उनका बेहोश होकर गिर पड़ना तथा अपने मित्र नरोत्तमकी मृत्युसे मर्माहत हो उठना उनकी कोमलता और भावुक ताके द्योतक हैं । आत्मचरितमें पारिवारिक सम्बन्धों और रीति-रिवाजोंका भी खासा वर्णन है । भाषा भी उन्होंने विषयके अनुरूप चुनी है और व्यर्थ के शब्दाबर और अलंकारोंसे उसे बोझिल होनेसे बचाया है । ग्रंथकी भाषा अपनी स्वाभाविक गतिसे बढ़ती है और उसका पैनापन सीधा बार करता है । वे जो बात कहते हैं सीधी सादी भाषामें, जिसे लोग समझ सकें । पर वह भाषा इतनी मँजी, अर्थप्रवण और मुहाविरेदार है कि पढ़नेवालेको आनंद मिलता है । उसमें अनेक परिभाषिक शब्द भी हैं जिन्हें समझने में अब कठिनाई पड़ सकती है पर १७ वी सदीमें तो यह भाषा व्यापारियों में प्रचलिा रही होगी, इसमें संदेह नहीं। थोड़े से शब्दोंमें एक चित्र खींच देना उनकी भाषाकी विशेषता है। व्यर्थके विस्तार का तो अधकथानकमें पता ही नहीं चलता ! इसमें संदेह नहीं कि भाषा, भाव, सहृदयता और उपयोगी विवरणोंसे भरा अर्धकथानक न केवल हिन्दी साहित्यका ही वरन् भारतीय साहित्यका एक अनूठा रत्न है । बनारसीदासकी आत्मकथाका संबंध राजमहलोंसे न होकर मध्यम व्यापारीवर्गसे है जिसे पगपगपर कठिनाइयों और राजभयसे लड़ना पड़ता था। इसमें साहसकी आवश्यकता थी और बनारसीदास, और जिस वर्गमें वे पले थे उसमें, यह साहस था और इसी लिए उन्हें कोई कुचल न सका। _ बैशा हम ऊपर कह आए हैं अर्धकथानक एक व्यापारीकी आत्मकथा है। जहाँ तक भारतीय साहित्यका संबंध है ऐसी कोई पुस्तक नहीं है जिसमें भारतीय दृष्टिकोणले १७ श्री सदीके व्यापारी जीवनका इतने सुंदर ढंगसे वर्णन को इस सीम अनेक युरोपीय यात्री जनम व्यापार!, डाक्टर राजदुत, पादरी, सिपाही, जहाजी तथा साहसिक सभी थे, जल और स्थलमागाँसे इस देश में आए, प. उनमें अधिकतर यात्रियोंका ज्ञान सीमित था। उनका भारतके भूगोल और प्रकृतिविज्ञानका ज्ञान अधिकतर गतानुगतिक होनेसे परिसीमित था तथा वे भारतीय रीतिरिवाज, जिनको विदेशी समझने में असमर्थ थे, उनके लिए हास्यास्पद थे। फिर भी उन्होंने अपने ढंगसे सत्रहवीं सदीके भारतीय रस्मारिवाज, वेषभूषा, खानपान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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