________________ दिया है उसमें वाचक रूपचन्द्रकी राजस्थानी टीकाकी दो प्रतियोंका उल्लेख है। उनमें एक प्रति संवत् 1788 की वाचक रूपचन्दके शिष्य चन्द्रवल्लभ द्वारा सोजत नगरमें बैठकर लिखी हुई है - " संवद्गनाष्टशैलेंदुवर्षे चाश्विनमासके, शुक्लपक्षनवम्याश्च सोमवारे लिखितं प्रति // 1 वाचका रूपचंद्राख्यास्तच्छिष्यश्चंद्रवल्लभः शुद्धदन्तीपुरे रम्ये प्रयास सफलं व्यघात् // 2 श्रीभवतु श्री स्यात् / संवत् 1788 वरसरै विषै आसोजमासरै विषै उजवाला पंखरी नवमी तिथिरै विषै मंगलवाररै दिन आ परति लिखतौ हुऔ। वाचकरूपचंद्रजी तिणरौ शिष्य चंद्रवल्लभ सोजितनगरमध्ये प्रयास सफल करतौ हुऔ।" दूसरी प्रति संवत् 1827 की लिखी हुई है। उसके अन्तका अंश यह है" तरणितेज खरतरै गच्छ जिणभगतिसूरि गुर / विजयमान बडवखत खेमसाखामधि सदर / वाणारस गुणवंत सुख्यवरधन अति सुज्जस / वाणारस विरुदाल श्रीदयालसिंघ सिष्य तस // तसु चरणरेणुसेवातणें भल प्रसाद मनभाविया / इम रूपचन्द परगट अरथ सतक तीन समझाइया // 2 // छत्रपति कमधांछात सकलराजराजेसर / महाराजकुलमुगट श्री अभैसिंघ नरेसर / विजैराज तसु वीर सकल हुजदारसिरोमणि / जीवराजघण जाण प्रसिध मंत्री वीरधणि / मनरूपपुत्र तसु प्रबलमति आग्रह तसु आरंभिया। इम रूपचन्द परगट अरथ सतक तीन समझाविया // 3 // इससे दो बातें मालूम होती हैं / एक तो नाटकसमयसार-टीकाके चार वर्ष पहले रूपचन्द्रके शिष्य चन्द्रवल्लभने शतकत्रयकी राजस्थानी भाषा टीकाकी प्रतिलिपि की थी और दूसरी यह कि रूपचन्दकी गुरुपरम्परा वही है जो नाटक समयसार टीकामें दी है-सुखवधन-दयासिंह-रूपचन्द / इस प्रशस्तिमें सुखवधनको जो 'बाणारस १-मुनि कान्तिसागरने इस प्रतिको अपने संग्रहकी बतलाया है (विशालभारत, मार्च, 1947 पृ० 201) और ब्र. नन्दलालजीद्वारा प्रकाशित टीकामें भी इसी प्रतिकी यह प्रशस्ति दी हुई है। २-तपागणपतिगुणपद्धति (पृ० 85 ) के अनुसार जोधपुरनरेश गजसिंहके मंत्री जयमल्ल विजयसिंहसूरिको जालौर दुर्ग लारो और वहाँ एकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org