________________ इस टीकाकी एक प्रति वि० सं० 1839 की लिखी हुई मिली है जो रूपचन्दके शिष्य विद्याशील और उनके शिष्य गजसार मुनिके द्वारा शुद्धिदन्तीपत्तन या सोजत ( मारबाड़ ) में लिखी गई थी / अर्थात् इस प्रतिके लेखक टीकाकारके प्रशिष्य हैं। __ इससे 13 वर्ष पहलेकी एक प्रति जयपुरके ग्रन्थभंडारमें है जिसका अन्तिम अंश पं० कस्तूरचन्दजीकाशलीवालने भेजनेकी कृपा की है / "- इति कविकृत भाषा पूर्णा / श्रीरस्तु पं० कल्याणकुशल लिपीकृतम् / सं० 1526 वर्षे / " __ मुनि कान्तिसागरजीने सोनगिरिपुरके विषयमें ग्वालियरके पासके 'सोनागिरि' 'तीर्थका अनुमान किया था; परन्तु प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने मुझे बतलाया कि वह मारवाड़का जालौर स्थान है / जालौरके निकट जो पहाड़ है, वह कनकाचल या सुवर्णगिरि कहलाता है / अतएव रूपचन्दजीने इसीके पासके नगर जालौर में अपनी टीका लिखी होगी। स्व० धर्मानन्द कोसंबीके पुत्र प्रो० दामोदर कोसम्बीने भतहारके 'शतकत्रयादिसुभाषितसंग्रह' का एक अपूर्व संस्करण सिंधी जैन-ग्रन्थमालामें प्रकाशित किया है। उसके इंट्रोडक्शनमें शतकत्रयकी मूल और सटीक प्रतियोंका जो विवरण आसू मास आदि द्यौस संपूरन ग्रंथ कीन्हौ, बारतिक करिकै उदार बार ससिमें। जो पै यहु भाषाग्रन्थ सबद सुबोध याकौ, तौहू बिनु संप्रदाय नावै तत्त्व बसमैं। यात ग्यानलाभ जानि संतनिको बैन मानि, बातरूप ग्रन्थ लिख्यौ महा सान्तरसमैं। खरतरगच्छनाथ विद्यमान भट्टारक, जिनभक्तसूरिजूके धर्मराज धुरमैं। खेमसा. खमांझि जिनहर्षजू बैरागी कवि, शिष्य सुखवर्धन सिरोमनि सुघरमैं // ताकै शिष्य दयासिंघ गणि गुणवंत मेरे, धरम आचारिज बिख्यात श्रुतधरमैं। ताकौ परसाद पाइ रूपचन्द आनदसौं, पुस्तक बनायौ यह सोनगिरिपुरमैं // मोदी थापिमहराज जाकौं सनमान दीन्ही, फतैचन्द पृथीराम पुत्र नथमालके / फतेहचन्दजूके पुत्र जलरूप जगनाथ, गोत गुनधरमै धरैया शुभ चालके // तामैं जगन्नाथजूके बृझिरके हतु हम, ब्यौरिकै सुगम कीन्है बचन दयालके / बांचत पढ़त अब आनंद सहाए कर), संगि ताराचन्द अरु रूपचन्द बालके / देसी भाषाको कहूं, अरथ विपजय कीन / ताको मिच्छा दुक्कडं, सिद्ध साखि हम कीन // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org