________________ जब ( 1943 में ) 'अर्धकथानक' का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ था, तव तक हमें यह टीका प्राप्त नहीं हुई थी। सन् 1876 में स्व० भीमसी माणिकने इस टीकाके आधारसे नाटक समयसारकी जो गुजराती टीका प्रकाशित की थी, उसके प्रारम्भमें लिखा है कि इस ग्रन्थकी व्याख्या रूपचन्द नामक किसी पंडितने की है जो हिन्दुस्तानी भाषामें होनेसे सबकी समझमें नहीं आ सकती। इसलिए उसका आश्रय लेकर हमने गुजरातीमे व्याख्या की है / इस गुजराती व्याख्याको हमने देखा था परन्तु उससे हम ीकाकारके सम्बन्धमें विशेष कुछ न जान सके थे, इसलिए हमने अनुमान किया था कि वह टीका बनारसीदासके साथी रूपचन्दकी होगी। परन्तु अब यह टीका प्रकाशित हो चुकी है और उससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि इसके कर्ता रूपचन्द्र खरतरगच्छकी क्षेम शाखाके श्वेताम्बर साधु थे। इसकी प्रशस्तिमें उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है --मुनि शान्तिहर्ष-जिनहर्ष-वाचकसुखवर्धन-दयासिंह और दयासिंहके शिष्य मुनि रूपचन्द्र / इनका जन्म आंचलिया गोत्रके ओसवाल वंशमें पाली (मारवाड़) में संवत् 1744 में हुआ और स्वर्गवास संवत् 1834 में'। इस तरह उन्होंने 90 वर्षका दीर्घजीवन प्राप्त दिया। उनकी पहली रचना (समुद्रवद्ध कवित्त) संवत् १७६७की और अन्तिम 1823 की है / संस्कृत और राजस्थानीमें श्री अगरचन्दजी नाहटाको उनके लगभग 40 ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। उनमें ज्योतिष, वैद्यक, काव्य, कोशग्रन्थोंकी राजस्थानी और हिन्दी टीकायें आदि हैं। रूपचन्दजीकी यह टीका वि० सं० 1792 आश्विन वदी 1 सोमवारको सोनगिरिपुरमें समाप्त हुई और गणधरगोत्रीय मोदी जगन्नाथजीके समझनेके लिए इसका निर्माण किया गया। सोनगिरिपुरके राजाने मोदीका पद देकर फतेहचन्दजीका सन्मान बढ़ाया था, और जगन्नाथ इन्हीं फतेहचंदके पुत्र थे। १--वाग्देवतामनुजरूपधरा मरौ च, श्री ओसवंशवद् अंचलगोत्रशुद्धाः / श्रीपाठकोत्तमगुणैर्जगति प्रसिद्धाः सत्पल्लिकापुरवरे मरुमण्डले च / अष्टादशे च शतके चतुरुत्तरे च, त्रिंशत्तमेव च समये गुरु-रूपचन्द्राः। आराधनां धवलभावयुतां विधाय, आयुः सुखं नवतिवर्षमितं च भुक्ताः॥ २-पृथ्वीपति विक्रमके राज मरजाद लीन्हैं, सत्रहसै बीतेपर बानुआ बरसमैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org