________________ . 92 जो यह सुरधर गावहिं, चित दै सुनहिं जु कान / मनवांछित फल पावहीं, ते नर नारि सुजान / / 50 पंचमंगल १-पणविवि पंच परमगुरु जो जिनसासनं-आदि २-जो नर सुनहिं बखानहिं सुर धर गावहीं, मनवांछित फल सो नर निहचै पावहीं / आदि ३--मयनरहित मूसोदर-अंबर जारिसौ, किमपि हीन निज तनुतै भयौ प्रभु तारिसौ // नेमिनाथ रासा पणविवि पंच परम गुरु, मनबचकाय तिसुद्धि / नेमिनाथ गुन गावउ, उपजै निर्मल बुद्धि / खटोलना गीत सिद्ध सदा जहाँ निवसहीं, चरम सरीर प्रमान / किंचिदून मयनोज्जित, मूसा गगन समान // इस तरह ये तीनों रचनाएँ एक ही कविकी मालूम होती हैं / एक और पं. रूपचंद इस नामके एक और विद्वान् उसी समय हुए हैं जिनके समवसरणपाठ या केवलज्ञान-कल्याणार्चा नामक संस्कृत ग्रंथकी अन्त्य-प्रशस्ति 'जैनग्रंथप्रशस्तिसंग्रह ' (नं० 107) में प्रकाशित हुई है / उससे मालूम होता है कि कुरु देशके सलेमपुरमें गर्गगोत्री अग्रवाल मामटके पुत्र भगवानदासके छह पुत्रोंमेंसे सबसे छोटे रूपचन्द थे, जो निरालस थे, जैनसिद्धान्तदक्ष थे / उसी समय भहारक जगद्भूषणकी आम्नायमें गोलापूरब वंशके संघपति भगवानदास हुए जिन्होंने जिनेन्द्रदेवकी प्रतिष्ठा कराई और उन्हींकी प्रेरणासे रूपचन्दने उक्त समवसरणपाठकी रचना की। संघपति भगवानदासकी उन्होंने निःसीम प्रशंसा की १-यह प्रशस्ति बहुत ही अशुद्ध और अस्पष्ट है / जगह जगह प्रश्नांक दिये हैं, जिनके कारण पूरा अर्थ स्पष्ट नहीं होता। इसकी मूल प्रति कहाँ किस भंडारमें है और प्रति लिखनेका समय स्थान क्या है, सो भी नहीं बतलाया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org