________________ आदि रचनायें संग्रहीत हैं। दूसरे गुटकेके दोहरा शतकके अन्तमें लिखा है " रूपचंद सतगुरुनिकी, जन बलिहारी जाइ // आपुन पै सिवपुर गए, भव्यनि पंथ दिखाइ // इतिश्री रूपचन्द्रजोगीकृत दोहरा शतक समाप्त / " इसका 'जोगी' पद रूपचंदके अध्यातमी होनेका प्रमाण है / यह शतक कहीं कहीं 'परमार्थी दोहाशतक' के नामसे मिलता है। इस सुन्दर रचनाके तीन दोहे देखिए--- चेतन चित-परिचय बिना, जप तप सबै निरत्थ / कन बिन तुस जिमि फटकतें, आवै किछू न हत्थ // चेतनसौं परचै नहीं, कहा भए व्रतधारि / सालि बिहूने खेतकी, वृथा बनावति बारि // बिना तत्त्व परचै बिना, अपर भाव अभिराम / ताम और रस रुचत है, अमृत न चाख्यौ जाम / / श्री अगरचन्दजी नाहटाके भेजे हुए पहले गुटकेमें जो कॅवरपालके हाथका लिखा हुआ है, रूपचन्दका एक सुन्दर पद दिया हुआ है - प्रभु तेरी परम विचित्र मनोहर मूर्ति रूप बनी / अंग अंगकी अनुपम सोभा, बरनि न सकत फनी // सकल बिकार रहित बिनु अंबर, सुंदर सुभ करनी / निराभरन भासुर छबि सोहत, कोटि तरुन तरनी / / बसुरसरहित सांत रस राजत, खलि इहि साधुपनी / जातिबिरोधि जंतु जिहि देखत, तजत प्रकृति अपनी // दरिसनु दुरित हरै चिर संचितु, सुर-गर-फनि मुनी / रूपचन्द कहा कहाँ महिभा, त्रिभुवन-मुकुट-मनी // रूपचन्दकी एक रचना ' गीत परमार्थी ' है, जिसमें परमार्थ या अध्यात्मके १--यह गुटका स्वयं कँवरपालका लिखा हुआ तो नहीं है, पर उनके पढ़नेके लिए लिखा गया था, सं० 1704 के आसपास / २--इसे हम जैनहितैषी भाग 6, अंक 5-6 में बहुत समय पहले प्रकाशित कर चुके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org