________________ अलंकार आदिसे सुसज्जित अध्यात्मशास्त्रकी अति सुन्दर रचना करके जैन साहित्यके गौरवको वृद्धिंगत किया है / " ___ अर्थात् राजमल्ल अमृतचन्द्रके नाटकसमयसारके मर्मज्ञ थे और इस लिए वे ही इस बालबोधटीकाके कर्ता मालूम होते हैं / बहुत संभव है कि अध्यात्मकमलमार्तण्डके रचनाकाल 1644 के लगभग ही उक्त टीका लिखी गई हो / वि० सं० 1680 में अरथमल ढोरने इस टीकाकी पोथी बनारसीदासको दी थी, और यह समय राजमल्लजीके ग्रन्थोंके रचनाकाल 1632, 1641 और 1645 के साथ बेमेल नहीं जान पड़ता। भारमल्लजी रांक्या गोत्रके श्रीमाल वणिक थे जिनको प्रसन्न करनेके लिए राजमल्लजीने छन्दोविद्याकी रचना की और बनारसीदासजी तथा अरथमलजी भी श्रीमाल थे। इसके सिवाय आगरा, वैराट आदिमें राजमल्लजीका आना जाना रहता था। , वे एक काष्ठासंधी भट्टारकके शिष्य थे। एक एक भट्टारकके अनेकों शिष्य होते थे जो अपनी आम्नायके श्रावकोंको धर्म-बोध देनेके लिए भ्रमण करते रहते थे / ये पांडे कहलाते थे, और इन्हींमेंसे गद्दीके उत्तराधिकारी चुने जाते थे / राजमल्ल इसी तरहके पांडे जान पड़ते हैं / इनके ग्रन्थोंमें भट्टारकोंकी और उनके अनुयायी धनी श्रावकोंकी लम्बी-लम्बी प्रशस्तियाँ हैं, परन्तु इन्होंने स्वयं अपना कोई परिचय नहीं दिया कि किस जाति या कुलके थे, सिर्फ इाना लिखा है कि काष्ठासंघके भट्टारक हेमचन्द्रकी आम्नायके थे। भट्टारकोंके शिष्य हो जानेपर कुल जाति बतलानेकी कोई जरूरत ही नहीं रहती। इनके ग्रन्योंसे यह परिचय अवश्य मिलता है कि ये बहुत बड़े विद्वान् कवि मा. 1-... स्व० ब्र० शीतलप्रसादने सन् 1929 में इस टीकाको नाटक समयसारके पद्य और अपना भावार्थ देकर प्रकाशित कराया था। इसमें प्रन्थकत की कोई प्रशस्ति नहीं है और न रचनाकाल ही दिया है / जयपुरके भंडारोंमें इसकी कई प्रतियाँ हैं, उनमेंसे एक सं० 1743 की और दूसरी सं० 1758 की लिखी है। परंतु किसी प्रतिमें प्रशस्ति या रचना-काल नहीं दिया है। श्री अगरचन्दजी नाहटाने मुझे बताया कि उन्होंने एक प्रति सं० 1657 की लिपनी देखी थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org