________________ 72 संसारी जानै नहीं, सत्यारथकी बात / परिगहसौं मानै बिभौ, परिगह बिन उतपात / / 645 // अब बनारसीके कहौं, बरतमान गुन दोष / विद्यमान पुर आगरे, सुखसौं रहै सजोष // 646 / / चौपई भाषाकबित अध्यातममांहि / पटतर और दूसरौ नांहि // छमावंत संतोषी भला / भली कबित पढ़िवेकी कला // 647 // पट्टै संसकृत प्राकृत सुद्ध / विविध-देसभाषा-प्रतिबुद्ध / जानै सबद अरथको भेद / ठानै नही जगतको खेद // 648 // मिठबोला सबहीसौं प्रीति / जैन धरमकी दिढ़ परतीति // सहनसील नहिं कहै कुबोल / सुथिरचित्त नहिं डावांडोल // 649 / / कहै सबनिसौं हित उपदेस / हृदै सुष्ट न दुष्टता लेस // पररमनीको त्यागी सोइ / कुबिसन और न ठानै कोई // 65 // हृदय सुद्ध समकितकी टेक / इत्यादिक गुन और अनेक // अलप जघन्न कहे गुन जोइ / नहि उतकिष्ट न निर्मल कोइ // 651 अथ दोषकथन कहे बनारसिके गुन जथा। दोपकथा अब बरनौं तथा / क्रोध मान माया जलरेख / पै लछिमीको लोभै बिसेख // 652 // पोतै हास कर्मकों उदा / घरसौं हुवा न चाहै जुदा !! करै न जप तप संजम रीति / नही दान-पूजासौं प्रीति // 653 // 1 ड पंडित / 2 ब हिये / 3 अ मोह / 4 अ कर्म दा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org