________________ दोहरा सांति-कुंथ-अरनाथकौ, कीनौ एक कबित्त / पाकौं पदै बनारसी, भाव भगतिसौं नित्त // 582 छप्पै श्री बिससेन नरेस, सूर नृप राइ सुदंसने / अचिरा सिरिआ देवि, करहिं जिस देव प्रसंसन। तसु नंदन सारंग, छाग नंदावत लंछन / चालिस पैंतिस तीस, चाप काया छबि कंचन // सुखरासि बनारसिदास भनि, निरखत मन आनंदई // हथिनापुर, गजपुर, नागपुर, सांति कुंथ अर बंदैई // 583 चौपई करी जात मन भयौ उछाह / फिरयौ संघ दिल्लीकी राह / / आई मेरठि पंथ बिचाल / तहां बनारसीकी न्हनसाल // 584 // उतरा संघ कोटके तले / तब कुटुंब जात्रा करि चले / / चले चले आए भर कोल / पूजा करी कियौ थौ कौल // 585 नगर आगरै पहुचे आइ / सब निज निज घर बैठे जाइ। बानारसी गयौ पौसालें / सुनी जती श्रावककी चाल // 586 बारह ब्रतके किए कबित्त / अंगीकार किए धरि चित्त // चौदह नेम संभालै नित्त / लागै दोष करै प्राछित्त // 587 नित संध्या पडिकौना करै / दिन दिन ब्रत विशेषता धरै // गहै जैन मिथ्यामत बमै / पुत्र एक हुवा इस समै // 588 1 व सुनंदन / 2 ब ई आनंदमय / 3 व ई बंदिजय / 4 ब प्यौसाल / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org