________________ चौपई तब बनारसी चितै आम / बिना जोर नहिं आवहि दाम / इहाँ हमारा किछु न बसाय / तातें बैठि रहै घर जाय // 545 दोहरा यह विचार करि कीनी दुवा / कही जु होना था सो हवा // आए अपने डेरेमांहि / कही बिप्रसौं दमिका (?) नाहिं // 546 भोजन कीनौ सबनि मिलि, हूऔ संध्याकाल। .. आयौ साहु महेसुरी, रहे राति खुसहाल // 547 __ चौपई फिरि प्रभात उठि मारग लगे / मनहु कालके मुखसौं भगे॥ दूजै दिन मारगके बीच / सुनी नरोत्तम हितकी मीच // 548 दोहरा 'चीठी बैनीदासकी, दीनी काहू आनि / बांचेत ही मुरछा भई, कहूं पांउ कहुं पानि // 549 बहुत भांति बानारसी, कियौ पंथमैं सोग / समुझावै मानै नहीं, घिरे आइ बहु लोग // 550 लोभ मूल सब पापको, दुखको मूल सनेह / मूल अजीरन ब्याधिकौ, मरन मूल यह देह // 551 ज्यौं त्यौं कर समुझे बहुरि, चले होहि असबार / क्रम क्रम आए आगरै, निकट नदीके पार // 552 तहां बिप्र दोऊ भए, आड़े मारग बीच / कहहिं हमारे दाम बिनु, भई हमारी मीच // 553 1 ड अ देखत / 2 अ सब। Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org