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मेरे साथ चलो तुम बरी । जो किछु उहाँ होइ सो खरी ॥ महेसुरी हूओ असबार । अरु दीबान चला तिस लार ॥ ५३५ दोऊ जनें बरीमैं गए । समधी मिले साहु तब भए । साहु साहुघर कियौ निवास । आयौ मुगल बनारसी पास ॥५३६ आइ कह्यौ तुम सांचे साहु । करहु माफ यह भया गुनाहु ॥ तब बनारसी कहै सुभाउ । तुम साहिब हाकिम उमराउ ॥ ५३७ जो हम कर्म पुरातन कियौ । सो सब आइ उदै रस दियौ । भावी अमिट हमारा मता । इसमें क्या गुनाह क्या खता ॥५३८ दोऊ मुगल गए निज धाम । तहं बनारसी कियौ मुकाम । दोऊ बांभन ठाढ़े भए । बोलहिं दाम हमारे गए ॥ ५३९
. दोहरा पहर एक दिन जब चढ्यौ, तब बनारसीदास । सेर छ सात फुलेल ले, गए मुगलके पास ॥ ५४० हाकिमकौं दीवानकौं, कोतबालके गेह । जथाजोग सबकौं दियौ, कीनों सबसन नेह ॥ ५४१ तब बनारसी यौँ कहै, आजु सराफ ठगाइ । गुनहगार कीजै उसहि, दीजै दाम मंगाइ ॥ ५४२ कहै मुगल तुझ बिनु कहैं, मैं कीन्हौ उस खोज । वह निज सबै ही साथ लै, भागा उस ही रोज ॥ ५४३
- सोरठा मिला न किस ही ठौर, तुम निज डेरे जाइ करि।
सिरिनी बांटहु और, इन दामनिकी क्या चली ॥ ५४४ १ अवसही साखि।
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